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________________ अनगारभावनाधिकारः ] कथं त्वममा इत्याशंकायामाह - अपरिग्गहा प्रणिच्छा संतुट्ठा सुट्टिदा चरितम्मि । अवि णीए वि सरीरे ण करेंति मुणी मर्मात्त ते ।।७८५ ॥ यस्मादपरिग्रहा निराश्रया अनिच्छाः सर्वाशाविप्रमुक्ताः संतुष्टाः संतोषपरायणाश्चारित्र सुस्थितामचारित्रानुष्ठानपराः, अपि च निजेऽपि शरीरे आत्मीयशरीरेऽपि ममत्वं न कुर्वन्ति मुनयः, अथवाऽविनीते शरीरे ममत्वं न कुर्वन्ति ततस्ते निर्ममा इति ॥७८५॥ अथ कथं ते निष्परिग्रहाः कथं वा यथाजाता इत्याशंकायामाह - ते णिम्ममा सरीरे जत्थत्थमिदा वसंति प्रणिएदा । सवणा श्रप्पडिबद्धा विज्जू जह विट्ठट्ठा वा ॥७८६ ॥ यतस्ते शरीरेऽपि निर्ममा निर्मोहा:, यत्रास्तमितो रविर्यस्मिन् प्रदेशे रविरस्तं गतस्तस्मिन्नेव वसंति तिष्ठति, अनिकेता न किचिदपेक्षते, श्रमणा यतयः, अप्रतिबद्धाः स्वतंत्राः, विद्युद्यथा दृष्टनष्टा ततोऽपरिग्रहा यथाजाताश्चेति ॥ ७८६ ॥ वसतिशुद्धि निरूपयन्नाह - ४६ गामेरादिवासी यरे पंचाहवासिणो धीरा । सवणा फासविहारी विवित्तएगंतवासी य ॥७८७॥ वे निर्मम कैसे हैं ! ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ - जो मुनि अपरिग्रही हैं, सन्तुष्ट हैं तथा चारित्र में स्थित हैं, वे मुनि अपने शरीर में भी ममत्व नहीं करते हैं । ।। ७८५|| आचारवृत्ति - जिस कारण वे आश्रयरहित हैं, सर्व आशा से विमुक्त हैं, सन्तोषपरायण हैं और चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर हैं, और तो क्या अपने शरीर में भी ममत्व' नहीं करते हैं । अथवा इस अविनीत शरीर में ममत्व नहीं करते हैं, इसलिए वे निर्मम कहलाते हैं । वे मुनि निष्परिग्रही क्यों हैं ? अथवा यथाजात क्यों हैं ? सो ही बताते हैं Jain Education International गाथार्थ—वे शरीर से निर्मम हुए मुनि आवास रहित हैं । जहाँ पर सूर्य अस्त हुआ वहीं ठहर जाते हैं, किसी से प्रतिबद्ध नही हैं, वे श्रमण बिजली के समान दिखते हैं और चले जाते हैं | ||७८६|| प्राचारवृत्ति - जो अपने शरीर में भी निर्मोही हैं । चलते हुए जिस स्थान पर सूर्य अस्त हो जाता है वहीं पर ठहर जाते हैं, किसी से कुछ अपेक्षा नहीं करते हैं, वे यति किसी से बँधे नहीं रहते हैं - स्वतन्त्र होते हैं। बिजली के समान दिखकर विलीन हो जाते हैं । अर्थात् एक स्थान पर अधिक नहीं ठहरते हैं । अतः ये अपरिग्रही हैं और यथाजात रूपधारी हैं । यहाँ तक का वर्णन हुआ। 1 अब वसतिशुद्धि का निरूपण करते हैं - गाथार्थ -ग्राम में एक रात्रि निवास करते हैं और नगर में पाँच दिन निवास करते हैं । प्रासु विहारी हैं और विविक्त एकान्त वास करने वाले हैं ऐसे श्रमण धीर होते हैं । ॥ ७८७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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