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[ मूलाचारे
प्रतिक्रामति परित्यजतीति पृथगभिसंबध्यते, प्राणिवधं परिक्रामन्ति परिहरन्तीत्यर्थः तथा मृषावाद, अदत्तग्रहणं, मैथुनप्रसंगं, परिग्रहं च त्यजन्ति मनोवचनकायैर्यावज्जीवं मरणान्तं दृढधृतयो मुनयः - स्थिरमतियुक्ताः साधवः प्राणिवधादिकं सर्वकालं परिहरन्तीति ॥७८२ ॥
व्रतविषयां शुद्धिमाह
ते सव्वमुक्का श्रममा अपरिग्गहा जहाजावा । वोसचतदेहा जिणवरधम्मं समं र्णेति ॥ ७८३ ॥
ते मुनयः सर्वग्रन्थमुक्ता मिथ्यात्व वेदकषाय रागहास्य रत्य रतिशोकभयजुगुप्सा इत्येतैश्चतुर्दशाभ्यन्तरग्रंथैमुकाः, अममाः स्नेहपाशान्निर्गताः, अपरिग्रहाः क्षेत्रादिदशविधबाह्यपरिग्रहान्निर्गताः यथाजाता नान्यगुप्ति गताः, व्युत्सृष्टत्यक्तदेहा मर्दनाभ्यंगोद्वर्तनस्नानादिदेहसंस्काररहिता एवंभूता जिनवरधर्मं चारित्रं युगपन्नयंति भवान्तरं प्रापयन्तीति ॥ ७८३ ॥
कथं ते सर्वप्रथमुक्ता इत्याशंकायामाह -
सव्वारंभणियत्ता जुत्ता जिणदेसिदम्मि धम्मम्मि । य इच्छंति मत परिग्गहे वालमित्तम्मि ॥ ७८४ ॥
यतस्ते मुनयः सर्वारंभेभ्योऽसि म षिकृषिवाणिज्यादिव्यापारेभ्यो निवृत्ता जिनदेशिते धर्मे चोयुक्त यतः श्रामण्यायोग्य बालमात्र परिग्रहविषये ममत्वं नेच्छन्ति यतस्ते सर्वग्रन्थविमुक्ता इति ॥७८४ ॥
आचारवृत्ति-स्थिर बुद्धि से युक्त साधु इन प्राणिवध आदि पाँचों पापों का जीवन भर के लिए मन-वचन-काय पूर्वक त्याग कर देते हैं ।
व्रत विषयक शुद्धि को कहते हैं-
गाथार्थ - वे ग्रन्थों - परिग्रहों से रहित, निर्भय, निष्परिग्रही यथाजात रूपधारी संस्कार से रहित मुनि जिनवर के धर्म को साथ में ले जाते हैं । ।। ७८३ ।।
श्राचारवृत्ति - जो मुनि सर्वग्रन्थ - मिथ्यात्व, तीन वेद, चार कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और गुस्सा इन चौदह अभ्यन्तर परिग्रहों से मुक्त हैं, स्नेह पाश से निकल चुके हैं, क्षेत्र, वास्तु आदि दस प्रकार के बहिरंग परिग्रह से भी रहित हैं, यथाजात नाग्न्यगुप्ति को धारण कर चुके हैं, मर्दन अभ्यंग उद्वर्तन, अर्थात् तैल मालिश, उबटन स्नान आदि के द्वारा शरीर के संस्कार से रहित हैं, ऐसे मुनि जिनेन्द्र भगवान् के धर्म को साथ ले जाते हैं ।
चारित्र को युगपत भवांतर में अपने
सर्वप्रथ से रहित किस लिए होते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैंगाथार्थ - मुनि सर्व आरम्भ से निवृत्त हो चुके हैं और जिनदेशित धर्म में तत्पर हैं बाल मात्र भी परिग्रह में भी ममत्व नहीं करते हैं | ||७६४ ||
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आचारवृति - जिस कारण वे मुनि असि, मषि, कृषि वाणिज्य आदि व्यापार से रहित हो चुके हैं, जिनेन्द्रदेव कथित धर्म में उद्युक्त हैं तथा श्रामण्य के अयोग्य बाल-मात्र भी परिग्रह के विषय में ममता नहीं करते हैं, क्योंकि वे सर्वग्रन्थ से विमुक्त हैं।
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