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________________ ४६ ] [ मूलाधारे प्रवराणां वरं प्रवरवरं श्रेष्ठादपि श्रेष्ठं धर्मतीर्थं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य चतुर्विंशतितीर्थंकरस्य त्रिप्रकारेण मनोवचनकायशुद्ध्या श्रद्दधति भावयन्ति । इत ऊर्ध्वं नास्त्यन्यदिति कृत्वास्माद्वर्द्धमानतीर्थंकरतीर्षादन्यत्तीर्थं नास्ति यतोऽनया लिंगशुद्ध्या सम्यग्दर्शन शुद्धिर्ज्ञानशुद्धिश्च व्याख्यातेति ॥ ७७८ ॥ तपःशुद्धिस्वरूपं निरूपयन्नाह - उत्साह उद्योगो द्वादशविधे तपसि तन्निष्ठता तस्मिन्नितान्तं निश्चितमतयस्तत्र कृतादरा: ' व्यवसितव्यवसायाः कृतपुरुषकाराः, बद्धकक्षाः सुसंयमितात्मनः कर्मनिर्मूलनसंस्था पितचेतोवृत्तयः, भावानुरक्ताः परमार्थभूतो योऽयमनुरागोऽहं द्भक्तिस्तेन रक्ता भाविताः, अथवा भावविषयः पदार्थविषयोऽनुरागो दर्शनं ज्ञानं च ताभ्यां रक्ताः सम्यगेकीभूताः, जिनप्रज्ञप्ते धर्मे भावानुरागरक्तास्तस्मिन् बद्धकक्षाश्चेति ॥ ७७६ ।। चारित्रशुद्धिस्वरूपमाह - उच्छाहणिच्छिवमदी ववसिवववसायबद्धकच्छा य । भावाणुरायरता जिणपण्णत्तम्मि धम्मम्मि ॥७७६ ॥ भाचारवृत्ति - वृषभदेव और वर्धमान अथवा चोबीस तीर्थंकरों का धर्मतीर्थ श्रेष्ठ स भी श्रेष्ठ होने से प्रवरवर है । मन-वचन-काय की शुद्धि से जो ऐसा श्रद्धान करते हैं- ऐसी भावना भाते हैं। तीर्थंकर वर्धमान के इस तीर्थ से बढ़कर अन्य कोई तीर्थ विश्व में नहीं है, जो ऐसा निश्चय करते हैं उन साधुओं के लिंग शुद्धि होती है। इस लिंग शुद्धि से ही सम्यग्दर्शनशुद्धि और ज्ञानशुद्धि का भी व्याख्यान कर दिया गया है । धम्ममणुत्तरमिमं कम्म मलपडलपाडयं जिणवखावं । संवेगजायसड्ढा गिण्हंति महव्ववा पंच ॥ ७८० ॥ तपशुद्धि का स्वरूपनिरूपित करते हैं गाथार्थ - उत्साह में बुद्धि को दृढ़ करनेवाले, पुरुषार्थ में प्रयत्नशील व्यक्ति जिनवर कथित धर्म में भावसहित अनुरक्त होते हैं । ।।७७६॥ प्राचारवृत्ति - जो बारह प्रकार के तप में उत्साही हैं, अर्थात् तपश्चरण के अनुष्ठान में आदर करते हैं, पुरुषार्थ को करनेवाले हैं, जिन्होंने कर्मों को निर्मूल करने में अपने चित्त को स्थापित किया है, जो परमार्थभूत अर्हत भक्ति से परिपूर्ण हैं, अथवा भाव विषय पदार्थविषयक अनुराग रूप जो दर्शन और ज्ञान है उन दर्शन और ज्ञान से अच्छी तरह एकमेक हो रहे हैं, वे मुनि जिनदेव द्वारा प्रतिपादित धर्म में भावपूर्वक अनुरक्त हैं और पुरुषार्थ में कमर कस कर तत्पर हैं, उन्हीं के तपशुद्धि होती है । १. तावतारा द० । चारित्र शुद्धि का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ ---कर्ममल समूह का नाशक जिनेंद्र द्वारा कथित यह धर्म अनुत्तर है । इस तरह संवेग से उत्पन्न हुई श्रद्धा से सहित मुनि पंच महाव्रतों को ग्रहण करते हैं । ।। ७८० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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