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________________ अनार भावनाधिकारः ] frम्मालियसु मिणाविय धणकणयसमिद्धबंधवजणं च । पयति वीर' पुरिसा विरत्तकामा गिहावासे ||७७६ ॥ निर्माल्यसुमनस इवोपभोगितपुष्पनिचयमिव धनं गोऽश्वमहिष्यादिकं कनकं सुवर्णादिकं ताभ्यां समृद्धमाढ्यं धनकनकसमृद्ध बांधवजनं स्वजनपरिजनादिकं परित्यजन्ति गृहवासविषये विरक्तचित्ताः सन्तः । यथा शरीरसंस्पृष्टं पुष्पादिकमकिचित्करं त्यज्यते तथा धनादिसमृद्धमपि बंधुजनं धनादिकं चाथवा गृहवास चेति संबंध: परित्यजन्तीति ॥७७६ ॥ एवं नैर्ग्रन्थ्यं गृहीत्वा तद्विषयां शुद्धिमाह तथा जम्मणमरणुव्विग्गा भीदा संसारवासमसुभस्स । रोचंति जणवरमदं पावयणं वड्ढमाणस्स ॥७७७॥ जन्ममरणेभ्यः सुष्ठुद्विग्ना निर्विण्णा भवत्रस्तहृदपाः संसारवासे यदशुभं दुःखं तस्माच्च भीताः सन्तः पुनर्ये रोचते समिच्छन्ति जिनवरमतं प्रवचनं, रोचंते वा मतं मुनिभ्यो वृषभादीनां जिनवराणां मतं वर्द्धमानभट्टारकस्य प्रवचनं द्वादशांगचतुर्दश पूर्वस्वरूपं समिच्छतीति ।।७७७।। [ ४५ पवरवरधम्मतित्थं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । तिविहेण सद्दहंति य णत्थि इदो उत्तरं श्रण्णं ॥ ७७८ ॥ Jain Education International गाथार्थ -गृहवास विरक्त हुए वीर पुरुष उतारी हुई माला के समान धन सुवर्ण से समृद्ध बांधव जन को छोड़ देते हैं | || ७७६ ॥ आचारवृत्तिः - उपभोग में ली गयी माला निर्माल्य कहलाती है। जैसे उस पहनी हुई पुष्पमाला को लोग छोड़ देते हैं, वैसे ही गो महिष आदि धन और सुवर्ण आदि से सम्पन्न हुए स्वजन - परिजन आदि को गृहवास से विरक्त-मना पुरुष छोड़ देते हैं । अर्थात् शरीर से स्पर्शित हुए पुष्पादि अकिचित्कर हो जाने से छोड़ दिये जाते हैं वैसे ही संसार से विरक्त हुए मनुष्य धन आदि से समृद्ध भी बन्धुजनों को अथवा गृहवास को छोड़ देते हैं । इस प्रकार निर्ग्रन्थरूप को ग्रहण कर उस विषयक शुद्धि को कहते हैं गाथार्थ - जो जन्म मरण से उद्विग्न हैं, संसारवास में दुःख से भयभीत हैं, वे जिनवर के मतरूप वर्धमान के प्रवचन का श्रद्धान करते हैं । ॥७७७ ॥ आचारवृत्तिः - जो जन्म और मरण से अतिशय उद्विग्न हो चुके हैं, अर्थात् जिनका हृदय भव से त्रस्त हो चुका है, जो संसारवास के अशुभ दुःखों से भयभीत हैं, जो वृषभ आदि जिनवरों के मत की रुचि करते हैं और जो द्वादशांग, चतुर्दशपूर्व स्वरूप वर्धमान भट्टारक के प्रवचन की इच्छा करते हैं । उसी प्रकार से गाथार्थ - जो जिनवर, वृषभदेव और वर्धमान के श्रेष्ठ धर्मतीर्थ का मन-वचन-काय से श्रद्धा करते हैं। क्योंकि इससे श्रेष्ठ अन्य तीर्थ नहीं है ॥ ७७८ ॥ १. धीर क० । २. रूप्यसुवर्णादिकं क० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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