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________________ ४४ ] [ मूलाधारे योगस्तेन गुप्तानां संवृतानां निश्चिन्त महातपसां द्वादशविधतपस्युयुक्तानां गुणधराणां गुणान् वक्ष्यामीति ॥ ७७४॥ तावल्लिंगशुद्धि विवेचयन्नाह - चलचवलजीविदमिणं णाऊण माणुसत्तणमसारं । frfaण्णकामभोगा धम्मम्मि उवट्टिवमवीया ॥ ७७५ ॥ चलमस्थिरं प्रतिसमयं विनश्वरं, चपलं सोपघातं (विद्युत्स्फुरणमिवाविदितस्वरूपं, जीवितं प्राणधारणं चलचपलजीवितं ) ' आवीचीतद्भवस्वरूपेणायुःक्षयरूपमिदं ज्ञात्वा, मनुष्यत्वं मनुष्यजन्मस्वरूपं, असारं परमार्थरहितं निर्विण्ण कामभोगाः स्वष्टवस्तुसमीहा काम उपभोगः स्त्र्यादिकः, भोगः सकृत्सेवितस्य पुनरसेवनं' तांबूलकुंकुमादि तद्विषयो निर्वेदोऽनभिलाषो येषां ते निर्विण्णकामभोगाः, धर्मे चारित्रे नैर्ग्रन्ध्यादिरूप उपस्थितमतिका गृहीताचेलकत्वस्वरूपा इत्यर्थः, तात्पर्येण नैर्ग्रन्थ्यस्वरूपप्रतिपादनमेतदिति ।। ७७५॥ पुनरपि तत्स्वरूपमाह मुनियों के चरित्र में निष्णात हैं, जो बारह तप में उद्यमशील हैं, ऐसे सर्वग्रंथ- परिग्रह से रहित गुणधर संयतों के गुणों का मैं वर्णन करूँगा । अब पहले लिंग शुद्धि का वर्णन करते हैं गाथार्थ - यह जीवन बिजली के समान चंचल है व मनुष्य पर्याय असार है, ऐसा जानकर काम भोगों से उदास होते हुए धर्म में बुद्धि को स्थिर करो || ७७५ || आचारवृत्ति - यह मनुष्य जन्म चल - अस्थिर है। प्रति समय विनश्वर है, चपल, बाधा सहित है, बिजली के चमकने के समान है, चंचलता के कारण इसका स्वरूप भी नहीं जाना जा सकता है, ऐसा यह जीवन चल और चपल है । प्राणों को धारण करना जीवन है और आयु का क्षय हो जाना मरण है । मरण के दो भेद हैं-आवीचीमरण और तद्भवमरण । प्रति समय आयु के निषेकों का उदय में आकर झड़ना आवीचीमरण है तथा उस भव सम्बन्धी आयु का विनाश होना तद्भव मरण है । प्रतिक्षण इन दो प्रकार के मरण रूप से आयु का क्षय हो रहा है, ऐसा यह मनष्य जन्म परमार्थ रहित होने से असार है । अपनी इष्ट वस्तु की इच्छा होना काम है और भोग के भोग-उपभोग, ऐसे दो भेद करने से स्त्री आदि तो उपभोग सामग्री हैं और तांबूल कुंकुम आदि भोग हैं । जिनका एक बार सेवन करने के बाद पुनः सेवन न हो सके वह भोग है। जिनका पुनः पुनः सेवन हो सके वे उपभोग हैं। मनुष्य जन्म को चल चपल और असार जानकर इन काम भोगों में अभिलाषा नहीं करना तथा धर्म-निर्ग्रन्थ अवस्था रूप चारित्र में बुद्धि का लगाना अर्थात् नग्न दिगम्बर मुद्रा को धारण करना चाहिए । इस गाथा में तात्पर्य से नैर्ग्रन्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । पुनरपि उसका स्वरूप कहते हैं १. कोष्ठकान्तर्गतः पाठः द प्रतो नास्ति विद्युत्स्फुरणवदेवविदित स्वरूपं क० । २. अपरमार्थं रूपं द० । ३. पुनरप्यसेवनं क० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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