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________________ अनगारभावनाधिकारः] [४१ न विद्यतेऽगारं गृहं स्त्र्यादिकं येषां तेऽनगारास्तेषामनगाराणां महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयः सम्यद्धिप्राप्तास्तेषां महर्षीणां, नागेन्द्रनरेन्द्रन्द्रमहितानां श्रीपार्श्वनाथसंजयंताद्यपसर्गनिवारणेन प्राधान्यान्नागेन्द्रस्य पूर्वानिपातोऽथवा बहूनां नियमो नास्ति, मोक्षार्हत्वात्तदनन्तरं नरेन्द्रस्य ग्रहणं, पश्चाद्-व्यन्तरादीनां ग्रहणमेतर्ये पूजितास्तेषामनगाराणां भावनानिमित्तं विविधसारं सर्वशास्त्रसारभूतं सूत्रं गुणैर्महद्वक्ष्यामि, अर्हतः प्रणम्यानगारभावनासूत्र वक्ष्यामीति सम्बन्धः ॥७७०॥ स्वकृतप्रतिज्ञानिर्वहणाय दश संग्रहसूत्राण्याह लिगं वदं च सुद्धी वसदिविहारं च भिक्ख णाणं च । उज्झणसुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तधा झाणं ॥७७१॥ लिंग निर्ग्रन्थरूपता शरीरस्य सर्वसंस्काराभावोऽचेलकत्वलोचप्रतिलेखनग्रहणदर्शनज्ञानचरित्र. तपोभावश्च, व्रतान्यहिंसादीनि । शुद्धिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, लिंगस्य शुद्धिलिंगशुद्धिलिंगानुरूपाचरणं व्रतानां शरिर्वतशुद्धिनिरतीचारता । अत्र प्राकृतलक्षणेन षष्ठ्यर्थे प्रथमानिर्देशः कृतः। वसति: स्त्रीपशुपांडकाभावोप प्राचारवृत्ति-अगार-गृह और स्त्री आदि जिनके नहीं हैं वे अनगार हैं। उन अनगारों में जो महान् हैं वे ऋषि महर्षि कहलाते हैं । वे समीचीन ऋद्धियों से सहित होते हैं। वे महर्षिगण नागेन्द्र, नरेन्द्र और इन्द्रों से पूजित हैं । यहाँ पर समास में 'नागेन्द्र' पद पहले रखा है। उसका हेतु यह है कि श्री पार्श्वनाथ व सन्जयन्त मुनि आदि के उपसर्ग निवारण से नागेन्द्र प्रधान करके उसका पूर्व में निपात किया है । अथवा बहुत से पदों में नियम नहीं रहता है। मोक्ष के लिये योग्य होने से उसके बाद में 'नरेन्द्र' पद को रखा है। पश्चात् व्यन्तर आदि के इन्द्रों को ग्रहण किया गया है। इन धरणेन्द्र, नरेन्द्र और इन्द्रों से जो पूजित हैं उन अनगारों की भावना के लिए सर्व शास्त्रों में सारभूत, गुणों से विशाल ऐसे अनगार सूत्र को मैं कहूँगा । यहाँ पर पूर्वगाथा से सम्बन्ध करना, अतः अर्हन्तों को प्रणाम करके मैं अनगार भावना को कहँगा, ऐसा समझना। स्वकृत प्रतिज्ञा के निर्वाह हेतु दश संग्रह सूत्रों को कहते हैं गाथार्थ-लिंग शुद्धि, व्रत शुद्धि, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान और उज्झन शुद्धि तथा वाक्य, तप और ध्यान शुद्धि ये दश अनगार भावना सूत्र हैं ॥७७१।। प्राचारवृत्ति-शुद्धि शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए। अतः यहाँ लिंग शुद्धि आदि दश पूत्रों का वर्णन है। १. लिंगशुद्धि-लिंग के अनुरूप आचरण करना लिंगशुद्धि है। लिंगनिग्रंथरूपता, शरीर के सर्वसंस्कार का अभाव होना। अचेलकत्व, लोच, पिच्छिकाग्रहण और दर्शन, ज्ञान, चरित्र एवं तप की भावना यह लिंग है। २. व्रतशुद्धि-व्रतों को निरतिचार पालना व्रतशुद्धि है। अहिंसा आदि पाँच व्रत कहलाते हैं। ३. वसतिशुद्धि-स्त्री, पशु और नपुसंक से रहित प्रदेश जोकि परम वैराग्य का • इस मूलाचार में ७७५, ७७६ नम्बर पर जो गाथायें हैं उन्हें फलटन से प्रकाशित मूलचार में इसके पहले लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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