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________________ ४२ ] [ मूलाचारे लक्षितप्रदेशः परमवैराग्यकारणस्थानं । विहारोऽनियतवासो दर्शनादिनिर्मलीकरणनिमित्तं सर्वदेशविहरणं । शिक्षा च विधाहारः । ज्ञान यथावस्थितनस्त्ववामो मत्यादिकं । उज्झनं परित्यागः शरीराद्यममत्वं । शद्धिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । वसतिशद्धिविहारशद्धिभिक्षाशुद्धिर्ज्ञानशद्धिरुज्झनशद्धिः । अत्रापि प्राकृतलक्षणे षष्ठयर्थे प्रथमा । पुनरपि च वाक्यं स्त्रीकथादिविरहितवचनं । तपः पूर्वसंचितकर्ममलशोधनसमर्थानुष्ठानं। तथा ध्यान शोभनविधानेनैकाग्रचिन्तानिरोधनं। अत्रापि शुद्धिर्द्रष्टव्या चशद्वात्सर्वेऽपि स्वगतसर्वभेदसंग्रहणार्या द्रष्टव्या इति ॥७७१॥ एतेषां सूत्राणां पाठे प्रयोजनमाह एदमणयारसुत्तं दसविध पद विणयअत्थसंजुत्तं । जो पढइ भत्तिजुत्तो तस्स पणस्संति पावाइं ॥७७२।। एतान्यनगारसूत्राणि दशविधपदानि दशप्रकाराधिकारनिबद्धानि नवकादशसंख्यानि न भवन्ति, कारण स्थान है वह वसति है । ऐसी वसति में रहना वसतिशुद्धि है। यहाँ गाथा में प्राकृत व्याकरण से षष्ठी अर्थ में प्रथमा विभक्ति का निर्देश है । अतः विहार आदि शब्द प्रथमान्त दिख ४. विहारशुद्धि-अनियतवास का नाम विहार है । सम्यग्दर्शन आदि को निर्मल करने के लिये सर्वदेश में विहार करना विहारशुद्धि है। ५. भिक्षाशुद्धि-चार प्रकार के आहार का नाम भिक्षा है। उसकी शुद्धि-छियालीस दोष आदि रहित आहार लेना भिक्षाशुद्धि है। ६. ज्ञानशुद्धि-यथावस्थित पदार्थों का जानना ज्ञान है जोकि मति आदि के भेद रूप है उसकी शुद्धि ज्ञानशुद्धि है। ७. उज्झनशुद्धि--उज्झन-परित्याग । अर्थात् शरीर आदि से प्रमत्व का त्याग करना - उज्झन शुद्धि है। ८. वाक्यशुद्धि-स्त्री-कथा आदि से रहित वचन बोलना वाक्यशुद्धि है। ९. तपशुद्धि-पूर्व संचित कर्ममल के शोधन में समर्थ ऐसा अनुष्ठान करना तप है। अर्थात् बारह प्रकार के तप का आचरण करना तपशुद्धि है । १०. ध्यानशुद्धि-शोभन विधान पूर्वक एकाग्रचिंता का निरोध करना ध्यान है। उसकी शुद्धि ध्यानशुद्धि है । गाथा में 'च' शब्द के आने से ये दशों भेद भी अपने-अपने भेदों से सहित हैं, ऐसा समझना। आगे आचार्य स्वयं इन शुद्धियों का विस्तृत विवेचन करेंगे। इन सूत्रों के पाठ में प्रयोजन बताते हैं गाथार्थ-इन विनय और अर्थ से संयुक्त दश प्रकार के पदरूप अनगार सूत्रों को जो भक्ति सहित पढ़ता है उसके पाप नष्ट हो जाते हैं ।।७७२।। १. दशविह क०। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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