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[ मूलाचारे लक्षितप्रदेशः परमवैराग्यकारणस्थानं । विहारोऽनियतवासो दर्शनादिनिर्मलीकरणनिमित्तं सर्वदेशविहरणं । शिक्षा च विधाहारः । ज्ञान यथावस्थितनस्त्ववामो मत्यादिकं । उज्झनं परित्यागः शरीराद्यममत्वं । शद्धिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । वसतिशद्धिविहारशद्धिभिक्षाशुद्धिर्ज्ञानशद्धिरुज्झनशद्धिः । अत्रापि प्राकृतलक्षणे षष्ठयर्थे प्रथमा । पुनरपि च वाक्यं स्त्रीकथादिविरहितवचनं । तपः पूर्वसंचितकर्ममलशोधनसमर्थानुष्ठानं। तथा ध्यान शोभनविधानेनैकाग्रचिन्तानिरोधनं। अत्रापि शुद्धिर्द्रष्टव्या चशद्वात्सर्वेऽपि स्वगतसर्वभेदसंग्रहणार्या द्रष्टव्या इति ॥७७१॥ एतेषां सूत्राणां पाठे प्रयोजनमाह
एदमणयारसुत्तं दसविध पद विणयअत्थसंजुत्तं ।
जो पढइ भत्तिजुत्तो तस्स पणस्संति पावाइं ॥७७२।। एतान्यनगारसूत्राणि दशविधपदानि दशप्रकाराधिकारनिबद्धानि नवकादशसंख्यानि न भवन्ति,
कारण स्थान है वह वसति है । ऐसी वसति में रहना वसतिशुद्धि है। यहाँ गाथा में प्राकृत व्याकरण से षष्ठी अर्थ में प्रथमा विभक्ति का निर्देश है । अतः विहार आदि शब्द प्रथमान्त दिख
४. विहारशुद्धि-अनियतवास का नाम विहार है । सम्यग्दर्शन आदि को निर्मल करने के लिये सर्वदेश में विहार करना विहारशुद्धि है।
५. भिक्षाशुद्धि-चार प्रकार के आहार का नाम भिक्षा है। उसकी शुद्धि-छियालीस दोष आदि रहित आहार लेना भिक्षाशुद्धि है।
६. ज्ञानशुद्धि-यथावस्थित पदार्थों का जानना ज्ञान है जोकि मति आदि के भेद रूप है उसकी शुद्धि ज्ञानशुद्धि है।
७. उज्झनशुद्धि--उज्झन-परित्याग । अर्थात् शरीर आदि से प्रमत्व का त्याग करना - उज्झन शुद्धि है।
८. वाक्यशुद्धि-स्त्री-कथा आदि से रहित वचन बोलना वाक्यशुद्धि है।
९. तपशुद्धि-पूर्व संचित कर्ममल के शोधन में समर्थ ऐसा अनुष्ठान करना तप है। अर्थात् बारह प्रकार के तप का आचरण करना तपशुद्धि है ।
१०. ध्यानशुद्धि-शोभन विधान पूर्वक एकाग्रचिंता का निरोध करना ध्यान है। उसकी शुद्धि ध्यानशुद्धि है ।
गाथा में 'च' शब्द के आने से ये दशों भेद भी अपने-अपने भेदों से सहित हैं, ऐसा समझना। आगे आचार्य स्वयं इन शुद्धियों का विस्तृत विवेचन करेंगे।
इन सूत्रों के पाठ में प्रयोजन बताते हैं
गाथार्थ-इन विनय और अर्थ से संयुक्त दश प्रकार के पदरूप अनगार सूत्रों को जो भक्ति सहित पढ़ता है उसके पाप नष्ट हो जाते हैं ।।७७२।।
१. दशविह क०।
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