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________________ ३२ ] [ मूलाचार संसारेऽनंतेऽत्यन्तदीर्घ जीवानां दुर्लभं मनुष्यत्वं मनुष्यजन्म, यथा लवणसमुद्रे युगसमिलासंयोगः । पूर्वसमुद्रभागे युगं निक्षिप्त, पश्चिमसमुद्रभागे समिला निक्षिप्ता, तस्याः समिलायाः युगविवरे यथा प्रवेशो दुर्लभस्तथा जीवस्य चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये मनुष्यत्वं दुर्लभमेवेति ।।७५७॥ मनुष्यत्वे लब्धेऽपि यदुर्लभं तदाह-- देसकुलजन्म रूवं आऊ आरोग्ग वीरियं विणओ। सवणं गहणं मदि धारणा य एदे वि धुल्लहा लोए॥७५८॥ मनुष्यत्वे लब्धेऽप्यतिदुर्लभ आर्यदेशः, मनुष्यत्वं यतो म्लेच्छखंडेषु भोगभूमावपि विद्यते । आर्यदेशे लब्धेऽपि दुर्लभं कुले जन्म, आर्यदेशे भिल्लवर्वरचांडालादिकुलानामपि संभवात् । विशुद्धकुले लब्धेऽप्यतीव दुर्लभं रूपमवयवसंपूर्णता, शुद्धकुलेऽपि यतो विकलांगदर्शनमिति । रूपे लब्ध्वाऽपि दुर्लभं सुष्ठु दीर्घायुश्चिरंजीवित्वं । चिरजीवनादप्यारोग्यं दुर्लभतमः । तस्मादपि श्रवणमार्यादिसंप्राप्तिः। तस्मादपि ग्रहणमवधारणं सुष्ठु न सुलभं । तस्मादपि पूर्वापरविवेकरूपता मतिः स्मरणादिकमतीव दुर्लभा । ततोऽपि धारणा कालान्तरेऽप्यविस्मरणत्वं दुर्लभा । मनुष्यत्वे लब्धेप्येते सर्वेऽपि क्रमेण दुर्लभा लोके जगतीति ॥७५८॥ एतेभ्योऽपि दुर्लभतममाह आचारवृत्ति-अत्यन्त दीर्घ इस अनन्त संसार में जीवों को मनुष्य पर्याय का मिलना बहुत ही दुर्लभ है। जैसे कि लवण समुद्र में युग और समिला का संयोग । अर्थात् जैसे लवण समुद्र के पूर्वभाग में जुवां को डाले और उसी समुद्र के पश्चिम भाग में सैल को डाले। पुनः उस सेल का जुवाँ के छिद्र में प्रवेश कर जाना जैसे कठिन है उसी प्रकार से चौरासी लाख योनियों के मध्य में इस जीव को मनुष्य जन्म का मिलना दुर्लभ ही है। मनुष्य पर्याय के मिल जाने पर भी जो कुछ दुर्लभ है उसे बताते हैं गाथार्थ-उत्तम देश-कुल में जन्म, रूप, आयु, आरोग्य, शक्ति, विनय, धर्मश्रवण, ग्रहण बुद्धि और धारणा ये भी इस लोक में दुर्लभ ही हैं ॥७५८॥ प्राचारवृत्ति-मनुष्य पर्याय के मिलने पर भी आर्यदेश का मिलना अतीव दुर्लभ है क्योंकि मनुष्यपना तो म्लेच्छ खण्डों में और भोगभूमि में भी विद्यमान है। आर्यदेश में भील, बर्बर, चाण्डाल आदि कुलों में भी उत्पत्ति हो जाती है। विशुद्धकुल के मिल जाने पर भी रूप शरीर के अवयवों की पूर्णता का होना अतीव दुर्लभ है, क्योंकि शद्ध कल में भी विकलांगहीनांग देखे जाते हैं। रूप के मिल जाने पर भी दीर्घायु का मिलना-चिरजीवी होना अतिशय दुर्लभ है। चिरजीवन से भी आरोग्य-स्वस्थ शरीर का मिलना दुर्लभतर है। आरोग्य से भी शक्ति का मिलना दुर्लभतम है। शक्ति से भी विनय का मिलना अतीव दुर्लभतम है। उससे भी श्रवण अर्थात् आर्यपुरुष आदि का संगति का मिलना उनका उपदेश सुनना अतीव दुर्लभ है। उपदेश सुनने के बाद भी उसको ग्रहण करना-मन में अवधारण करना सुलभ नहीं है। पूर्वापर विवेक रूप बुद्धि का होना, स्मरण शक्ति आदि होना अतीव दुर्लभ है। कालान्तार में भी अविस्मरण रूप धारणा का होना उससे भी दुर्लभ है । अर्थात् मनुष्य पर्याय के मिल जाने के जाने के बाद भी इस जगत् में ये सभी क्रम-क्रम से दुर्लभ ही हैं, ऐसा समझना। इनसे भी जो दुर्लभतम है उसे बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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