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________________ प्रेक्षाधिकारा] लद्धसु वि एदेसु य बोधी जिणसासणह्मि ण हु सुलहा । कुपहाणमाकुलत्ता जं बलिया रागदोसा य ॥७५६॥ मम्धेष्वप्येतेषु मनुष्यादिषु बोधिः सम्यक्त्वं दर्शनविशुद्धिस्तत्कारणे च जिनशासने परमागमे नैव सुलभा न सुखेन लभ्यते। कुतः ? कुपथानामाकुलत्वात् यतः कुत्सितमागैर्दुष्टाभिप्रायैराकुलोऽयं प्रान्तोऽयं लोकः, यस्माच्च रागद्वेषौ वलवन्तो, अथवा कुपथानामाकुलत्वहेतोर्बलिनौ रागद्वेषौ यत इति ।।७५६।। एवं बोधिदुर्लभत्वं' विज्ञाय तदर्थपरिणामं कर्तुकामः प्राह सेयं भवभयमहणी बोधी' गुणवित्थडा मए लद्धा। जदि पडिदा ण हु सुलहा तम्हा ण खमो पमादो मे ॥७६०॥ सेयं बोधिर्भवभयमथनी संसारभीतिविनाशिनी गुणविस्तरा गुणविस्तीर्णा सर्वगुणाधरा मया लब्धा प्राप्ता, यदि कदाचित्संसारसमुद्रे पतिता प्रभ्रष्टा न खलु नैव स्फुटं पुन: सुलभाऽर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनमन्तरेण तस्मान्नैव क्षमो नैव योग्यः प्रमादो मम-बोधिविषये प्रमादकरणं मम नैव युक्तमिति ॥७६०॥ बोधिविषये यः प्रमादं करोति तं कुत्सयन्नाह गाथार्थ—इनके मिल जाने पर भी जिन-शासन में बोधि सुलभ नहीं है, क्योंकि कुपथों की बहुलता है और राग-द्वेष भी बलवान् हैं ।।७५६।। प्राचारवृत्ति-उपर्युक्त आर्यदेश आदि के मिल जाने पर भी बोधि-सम्यक्त्व अर्थात् दर्शनविशुद्धि और उसके कारणों का मिलना परमागम में सुलभ नहीं है । अर्थात् यह बोधि सुख से. सरलता से नहीं मिल सकती है। क्यों ?.क्याकि कत्सित मार्गों से--दष्ट अभिप्रायवाले जनों से यह लोक भ्रान्त हो रहा है और इसमें राग-द्वेष भी अतीव बलवान् हैं। अथवा कुपथों में व्याकुलता के हेतु ये बलवान् राग-द्वेष हैं । इसीलिए बोधि का मिलना दुर्लभ है। इस प्रकार बोधि-दुर्लभता को जानकर उसके लिए कैसे परिणाम मेरे होवें इसे आचार्य कहते हैं गाथार्थ-सो यह भवभय का मंथन करनेवाली, गुणों से विस्तार को प्राप्त बोधि मैंने प्राप्त कर ली है। यदि यह छूट जाए तो निश्चित रूप से पुनः सुलभ नहीं है। अत: मेरा प्रमाद करना ठीक नहीं है ।।७६०॥ आचारवत्ति-सो यह सम्यग्दर्शन रूप बोधि संसार के भय का नाश करनेवाली है, सर्वगणों के लिए आधारभत है। इसे मैंने प्राप्त कर ली है। यदि यह कदाचित संसार-समद्र में गिर जाय तो पुनः अर्द्धपुद्गल परिवर्तन के बिना यह सुलभ नहीं है । इस लिए बोधि के विषय में मेरा प्रमाद करना योग्य नहीं है-उचित नहीं है । अर्थात् एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद यदि प्रमाद से वह छूट जाए तो पुनः अधिक-से-अधिक अर्द्धपुद्गल परिवर्तन कालपर्यन्त यह जीव इस संसार में भ्रमण कर सकता है । अतः सम्यक्त्व की रक्षा के लिए सावधान रहना चाहिए। बोधि के विषय में जो प्रमाद करते हैं उनकी निन्दा करते हुए कहते हैं १. बोधेर्दुल-२० २. तदर्थाय परि-क० ३. बोही क० ४. तस्मान्न क. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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