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________________ बादशानुप्रेक्षाधिकारः] धर्मभावनाफलमाह उवसम दया य खंती वड्ढइ बेरगदा य जह जह से। तह तह य मोक्खसोक्खं अक्खीणं भावियं होइ ॥७५५।। उपशम इन्द्रियनिग्रहे पुरुषव्यापारो, दयानुकंपा, क्षान्तिः क्रोधाद्यनुत्पत्तिरन्यकृतोपद्रवसहनं, एते विरागता च यथा यथा वर्धन्ते-वैराग्यकारणेन वृद्धि गच्छन्ति यथा यथास्य जीवस्य तथा तथा तस्य जीवस्य मोक्षसौख्यमक्षरं भावितं भवतीति ।।७५५॥ धर्मानुप्रेक्षामुपसंहर्तुकामः प्राह-- संसार विसमदुग्गे भवगहणे कह वि मे भमतेण । दिट्ठो जिणवरदिट्ठो जेट्टो धम्मोत्ति चितेज्जो ॥७५६।। संसारविषमदुर्गे भवगहने भवैाकुले कथमपि भ्रमता पर्यटता मया जिनवरोपदिष्टो ज्येष्ठः प्रधानो धर्मो दृष्टः इत्येवं चिन्तयेदिति ।।७५६।। बोधिदुर्लभतास्वरूपमाह संसारह्मि अणंते जीवाणं दुल्लह मणुस्सत्तं । जुगसमिलासंजोगो लवणसमुद्दे जहा चेव ॥७५७॥ धर्मभावना का फल बताते हैं--- गाथार्थ-जैसे-जैसे इस जीव के उपशम, दया क्षमा और वैराग्य बढ़ते हैं वैसे-वैसे ही अक्षय मोक्षसुख भावित होता है ।।७५५॥ प्राचारवृत्ति-इन्द्रियों के निग्रह में पुरुष का व्यापार होना उपशम है। अनुकम्पा का नाम दया है, क्रोधादि की उत्पत्ति न होना और अन्यकृत उपद्रव सहन करना क्षमा है, संसार शरीर-भोगों से उद्विग्न होना वैराग्य है । जिस जीव के ये सब वैराग्य के कारण से जैसे-जैसे वृद्धि को प्राप्त होते रहते हैं वैसे-वैसे ही उसी जीव के अक्षय मोक्ष सुख की भावना होती रहती है। धर्मानुप्रेक्षा का उपसंहार करते हुए कहते हैं गाथार्थ-संसारमय विषमदुर्ग इस भववन में भ्रमण करते हुए मैंने बड़ी मुश्किल से जिनवर कथित प्रधान धर्म प्राप्त किया है-इस प्रकार से चिन्तवन करे ॥७५६॥ प्राचारवृत्ति-यह संसार विषम दुर्ग के समान है, अनेकों भवों से अर्थात् पुनः पुनः जन्म ग्रहण करने से गहन है, व्याकुल है। ऐसे इस संसार में पर्यटन करते हुए बड़ी मुश्किल से मैंने जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट सर्व प्रधान इस धर्म को प्राप्त किया है। इस प्रकार से चिन्तवन करना चाहिए। यह धर्मानुप्रेक्षा हुई। बोधिदुर्लभता का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ--अनन्त संसार में जीवों को मनुष्य पर्याय दुर्लभ है। जैसे लवणसमुद्र में युग अर्थात् जुवां और समिला अर्थात् सैल का संयोग दुर्लभ है ।।७५७॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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