SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवशानुप्रेक्षाधिकारः | [ २६ पंचनमस्कृतिसहित: संयमः प्राणिदया इन्द्रियनिग्रहाचतैरुज्ज्वलितं प्रज्वलितं दीप्तं तपो दहति भवबीजं संसारकारणं । तणकाष्ठादिक यथाऽग्निर्दहति तथेति ॥७४६।। पुनरपि चिरकालमज्जिदं पि य विहुणदि तवसा रयत्ति णाऊण । दुविहे तवम्मि णिच्च भावेदव्वो हवदि अप्पा ॥७५०।। चिरकालं संख्या (म)तीतसमयं कर्माणितमपि तपसा विधूयत इति ज्ञात्वा द्विविधे तपसि नित्यं निरन्तरमात्मा भावयितव्यो भवतीति ॥७५०॥ भावितात्मा स नु किं स्यादित्याह णिज्जरियसव्वकम्मो जादिजरामरणबंधणविमुक्को । पाव दि सुक्खमणंत णिज्जरणं तं मणसि कुज्जा ।।७५१।। ततो निर्जीर्णः सर्वकर्मनिर्मुक्तो जातिजरामरणबन्धनविमुक्तः प्राप्नोति सौख्यमतुलमनंतं, तन्निर्जरणं मनसि कृत्वा (कुर्यात्) विधायेति ।।७५१॥ निर्जरानुप्रेक्षां व्याख्याय धर्मानुप्रेक्षास्वरूपं विवेचयन्नाह निरोधरूप ध्यान को वरसमाधि कहते हैं। पंचनमस्कार के साथ प्राणियों पर दया करना और इन्द्रिय-निग्रह करना संयम है। इनसे तपरूपी अग्नि को उद्दीपित किया जाता है और उसमें मति, श्रुत आदि ज्ञानरूपी हवा की जाती है। अर्थात् सम्यक्ज्ञान और चरित्र से युक्त तप संसार के कारणों को नष्ट कर देता है। पुनरपि उसी को बताते हैं--- गाथार्थ-चिरकाल से अजित भी कर्मरज तप से उड़ा दी जाती है, ऐसा जानकर दो प्रकार के तप में नित्य ही आत्मा को भावित करना चाहिए ।।७५०॥ प्राचारवृत्ति-अनन्तकाल में संचित किया गया कर्म भी तपश्चरण द्वारा नष्ट हो जाता है, ऐसा जानकर निरन्तर अन्तरंग व बहिरंग तपश्चरण में आत्मा को लगाना चाहिए। तप में आत्मा को लगाने से क्या होगा ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-जिसके सर्वकर्म निर्जीर्ण हो चुके हैं ऐसा जीव जन्म-जरा-मरण के बन्धन से छूटकर अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है। अतः गन में तुम उस निर्जरा का चिन्तवन करो॥७५१।। __प्राचारवृत्ति-तपश्चरण से समस्त कर्मों की निर्जरा हो जाने पर जन्म, जरा और मरण के बन्धन से मुक्त होता हुआ यह जीव अतुल अनन्त सौख्य को प्राप्त कर लेता है । इसलिए मन में निर्जरा भावना को भावो । यह निर्जरा अनुप्रेक्षा हुई। निर्जरानुप्रेक्षा का व्याख्यान करके अब धर्मानुप्रेक्षा का विवेचन करते हैं-- १. यथाग्निरितिक० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy