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तपसा पुनर्निर्जरा विपुला - तपोग्निना भस्मीकृतस्य सर्वस्य कर्मणो निर्जरा सकलेति ॥७४७॥
सकल निर्जरायाः फलं स्वरूपं चाह
जहधा धम्मंतो सुज्झदि सो श्रग्गिणा व संतत्तो । दु तवसा तहा विसुज्झदि जीवो कम्मेहि कणयं व || ७४८ ||
• यथा धातुस्सुवर्णपाषाणः धम्यमानः शुध्यति किट्टकालिमादिरहितो भवति अग्निना तु सन्तप्तः सन्, तथा तपसा विशुध्यते कर्मभ्यो जीवः सर्वकर्मविमुक्तः स्यात्कनकमिव । यथा धातुर्धम्यमानोऽग्निना सन्तप्तः कनकः स्यात्तथा जीवस्तपसा संतप्तः सिद्धः संपद्यत इति ॥ ७४८ ॥
तपसो माहात्म्यमाह
[ मूलाधारे
णाणवरमारुदजुदो सीलवर समाधिसंजमुज्जलिदो । दह तवो भवबीयं तणकट्ठादी जहा अग्गी ||७४६॥
ज्ञानवर मारुतयुतं मत्यादिज्ञानबृहद्वातसहितं शीलं व्रतपरिरक्षणं, वरसमाधिरेकाग्रचिन्तानिरोधः,
वह देशनिर्जरा है। तपरूपी अग्नि से भस्म किये हुए सभी कर्मों की जो निर्जरा होती है वह संकल निर्जरा है । जिन कर्मों के कुछ अंश क्षय को प्राप्त हो चुके हैं, कुछ उपशम अवस्था को प्राप्त हैं, कुछ उदय में आ रहे हैं और कुछ सत्ता में स्थित हैं उसको क्षयोपशम कहते हैं ।
सकलनिर्जरा का फल और स्वरूप बताते हैं
गाथार्थ - जैसे अग्नि से धमाया गया धातु सन्तप्त हुआ शुद्ध हो जाता है । वैसे ही स्वर्ण के समान ही जीव तप द्वारा कर्मों से शुद्ध हो जाता है ।।७४८ ।।
श्राचारवृत्ति - जैसे स्वर्णपाषाण जब धमाया जाता है तब अग्नि से सन्तप्त होता हुआ fag कालिमा रहित शुद्ध सुवर्ण हो जाता है । उसी प्रकार से यह जीव तपश्चरण से तपाया हुआ सर्वकर्म से रहित होकर शुद्ध सिद्ध हो जाता है ।
तप का माहात्म्य बतलाते हैं
गाथार्थ - श्रेष्ठ ज्ञानरूपी हवा से युक्त शील, श्रेष्ठ समाधि व संयम से प्रज्वलित हुई तपरूपी अग्नि भवबीज को जला देती है, जैसे कि अग्नि तृण काठ आदि को जला देती है ||७४६ || श्राचारवृत्ति मतिज्ञान आदि महान वायु से सहित, शील, समाधि और प्रज्वलितउद्दीपित तपरूपी अग्नि संसार के बीज - कारणों को भस्मसात् कर देती है, जैसे कि अग्नि तृण, काठ आदि को भस्मसात् कर देती है। व्रतों का रक्षण जिससे होता है वह शील है । एकाग्रचिन्ता
* फलटन से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा अधिक है
आवेसणी सरीरे इन्दियभंडो मणो व आगरिओ ।
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धमित्र जीवलोहो वावीस परीसहग्गीहि ।।
अर्थ – यह शरीर आवेशनी - चूल्हा के समान है, इन्द्रियाँ भांड अर्थात् अलंकार बनाने के साधन चिमटा थोड़ा आदि के समान हैं, मन सुवर्णकार के समान है, जीव सुवर्णधातु के समान है और क्षुधातृषादि परीषह अग्नि के समान हैं । अर्थात् शरीर रूपी चूल्हे--भट्टी में बाईस परीषहरूपी अग्नि में मनरूपी उपाध्याय—या सुवर्णकार के द्वारा तपाया गया यह जीवरूपी सुवर्णं कर्मरूपी मल के नष्ट हो जाने से निर्मल- शुद्ध हो जाता है।
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