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________________ द्वावशानुप्रेक्षाधिकारः] [ २७ संवरानुप्रेक्षां संक्षेपयन् तस्याश्च फलं प्रतिपादयन्नाह संवरफलं तु णिव्वाणमेत्ति संवरसमाधिसंजुत्तो। णिच्चुज्जुत्तो भावय संवर इणमो विसुद्धप्पा ॥७४५।। संवरफलं निर्वाणमिति कृत्वा संवरेण समाधिना चाथवा संवरध्यानेन संयुक्तः सन् नित्योयुक्तश्च सर्वकालं यत्नपरं भावयेमं संवरं विशुद्धात्मा सर्वद्वन्द्वपरिहीणः-संवरं प्रयत्नेन चिन्तयेति ॥७४॥ निर्जरास्वरूपं विवृण्वन्नाह रुद्धासवस्स एवं तवसा जुत्तस्स णिज्जरा होदि । दुविहा य सा वि भणिया देसादो सव्वदो चेव ।।७४६।। रुद्धास्रवस्य पिहितक गिमद्वारस्यवं तपसा युक्तस्य निर्जरा भवति-कर्मशातनं भवति । साऽपि च निर्जरा द्विविधा भणिता, देशतः सर्वतश्च 'कमक देशनिर्जरा सर्वकर्मनिर्जरा चेति ॥७४६॥ देशनिर्जरास्वरूपमाह संसारे संसरंतस्स खग्रोवसमगदस्स कम्मस्स । सवस्स वि होदि जगे तवसा पुण णिज्जरा विउला ॥७४७॥ संसारे चतुर्गतिसंसरणे, ससरतः पर्यटतः, क्षयोपशमगतकर्मणः किंचित् क्षयमुपगतं किंचिदुपशान्तं किंचित्सतस्वरूपेण स्थितं कर्म तस्य कर्मणो या निर्जरा सा सर्वस्यैव जीवस्य भवति जगति सा च देशनिर्जरा अब संवर-अनुप्रेक्षा को संक्षिप्त करते हुए और उसका फल बतलाते हुए कहते हैं गाथार्थ-संवर का फल निर्वाण है, इसलिए संवर-समाधि से युक्त, नित्य ही उद्यमशील, विशुद्ध आत्मा मुनि इस संवर की भावना करे।।७४५।। आचारवृत्ति-संवर का फल तो निर्वाण है-ऐसा समझकर संवर और समाधि अथवा संवर ध्यान से संगुक्त होते हुए सर्वकाल यत्न में तत्पर, सर्वद्वन्द्वों से रहित मुनि प्रयत्नपूर्वक इस संवर अनुप्रेक्षा का चिन्तवन करे । यह संवर अनुप्रेक्षा हुई। निर्जरा का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-इस प्रकार जिनके आस्रव रुक गया है और जो तपश्चर्या से युक्त हैं उनके निर्जरा होती है । वह भी देश और सर्व को अपेक्षा से दो प्रकार की कही गयी है ।।७४६।। प्राचारवृत्ति-जिन मुनिराज ने कर्मागम का द्वार बन्द कर दिया है और तपश्चरण से सहित हैं उनके कर्म के झड़ने रूप निर्जरा होती है। उस निर्जरा के दो भेद हैं कर्मों की एकदेशनिर्जरा और सर्वकर्मनिर्जरा। एक-देशनिर्जरा का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-संसार में संसरण करते हुए जीव के क्षयोपशम को प्राप्त कर्मों की निर्जरा जगत् में सभी जीवों के होती है और पुनः तप से विपुल निर्जरा होती है ।।७४७।। आचारवृत्ति-चतुर्गति के संसरण रूप ऐसे इस संसार में संसरण करते हुए जीव के क्षयोपशम को प्राप्त करते हुए कर्मों की जो निर्जरा होती है वह सभी संसारी जीवों को होती है १. 'एककमक' इति प्रेस-पुस्तके पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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