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[ मूलाचारे
तपसा निगृह्यन्ते, कषाया ज्ञानभावनया वशीक्रियते, द्वेषो विनयक्रियया प्रलयमुपनीयते । यथोत्पथगामिन उन्मार्गयादिनस्तुरमा अश्वा निगृह्यन्ते वशतामुपनीयन्ते रज्जुभिर्वरत्राभिः खल्विति' ।। ७४२ ।।
चारित्रसंवरस्य स्वरूपमाह -
मनयण काय गुत्तदियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स | प्रासवदारणिरोहे णवकम्मरवासवो ण हवे ||७४३॥ मनोवचनकायैर्गुप्तेन्द्रियस्थ
समितिषु चेर्याभाषैषणाऽऽदाननिक्षेपोच्चार 'प्रस्रवणसंज्ञिकास्व
प्रमत्तस्य सुष्ठु प्रमादरहितस्य चारित्रवत आस्रवद्वारनिरोधे यद्वरिः कर्मागच्छति तेषां निरोधे सति नवकर्म रजस आस्रवो न भवेत् -- अभिनवकर्मागमो न भवेदिति ।। ७४३ ||
पुनरपि संक्षेपत आस्रवं संवरं चाह
मिच्छत्ताविरवीहि य कसायजोगेहिं जं च आसवदि । दंसणविरमणणिग्गहणिरोधणेहिं तु णासवदि || ७४४ ||
मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगैर्यत्कर्मास्रवति तत्कर्म सम्यग्दर्शनविरति निग्रहनिरोधनस्तु यथासंख्यं' नास्रवति नागच्छतीति ॥ ७४४ ।।
रवृत्ति-इन्द्रियों का तप से निग्रह होता है, कषायें ज्ञान-भावना से वश में की जाती हैं और विनक्रिया से द्वेष प्रलय को प्राप्त हो जाता है । जैसे कि उन्मार्ग में चलनेवाले घोड़े निश्चित ही चर्ममयी रस्सी ( चाबुक ) से वशीभूत किये जाते हैं ।
चारित्रसंवर का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ - मन-वचन-काय से इन्द्रियों को वश में करनेवाले, समितियों में अप्रमादी साधु के आस्रव का द्वार रुक जाने से नवीन कर्मरज का आस्रव नहीं होता है || ७४३ ||
आचारवृत्ति - जिन्होंने मन, वचन और काय से अपनी इन्द्रियों को गुप्त अर्थात् वश में कर लिया है, जो ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उच्चारप्रस्रवण नामक पाँच समितियों में प्रमाद से रहित - सावधान हैं ऐसे अप्रमत्त चारित्रधारी साधु के जिन द्वारों से कर्मास्रव होता है उनका निरोध हो जाने पर उनके नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता है ।
पुनरपि संक्षेप से आस्रव और संवर को कहते हैं-
गाथार्थ -- मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग इनसे जो कर्म आते हैं वे दर्शन, विरति, निग्रह और निरोध से नहीं आते हैं || ७४४ ||
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आधार - मिव्यत्व, अविरति, कषाय और योग इनसे आत्मा में जो कर्म आते हैं वे क्रमशः सम्यग्दर्शन, विरति, इन्द्रिय निग्रह और योगनिरोध इन कारणों से नहीं आते हैंरुक जाते हैं । इस तरह कर्मों का आना आस्रव और कर्मों का रुकना संवर- इन दोनों का वर्णन यहाँ किया गया है।
१. स्फुटमिति क २. निक्षपोच्चारणं प्रस्रवणं क० ३. यथासंख्येन क०
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