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________________ हावभानुप्रेक्षाधिकारः] [२५ संज्ञागौरवरागादिकानि । यस्मादेतैः कर्मागच्छति तस्मादेतानि सर्वाणि निरोधयेदिति ॥७४०॥ रुद्धेषु तेषु यद्भवति तदाह रुद्धेसु कसायेसु अ मूलादो होति पासवा रुद्वा । दुब्भत्तम्हि णिरुद्ध वणम्मि णावा जह ण एदि ॥७४१॥ रुद्धषु च कषायेषु च मूलादारभ्य मूलत आस्रवाः सर्वेऽपि रुद्धाः सम्यक् पिहिता भवंति यथा दुवहति वने पानीये--दुष्टे वहति स्रोतसि जले, अथ व्रणे-विवरे, दुष्टे वहति, निरुद्धे विधृते, नावं नैति जलं यथा। अथवा नालिकेरादित्वग्भिर्बद्धा नौः सास्रवा सत्यपि नयति प्राप्नोति परतीरं, अथवा नैति विनाशं। कषायेषु निरुद्धेषु आस्रवा रुद्धा यथा नावं नैति जलं रुद्ध षु, यथा च सासवा नौवहति पानीये निरुद्ध मूलतस्तस्या नावः सर्वेऽपि आस्रवा निरुद्धा भवंति ततः सा नौनयति प्रापयतीष्टस्थानमानयति वा स्वेष्टं वस्तु-विनाशं च न गच्छति, एवं कषायेषं रुद्धष मूलतः सर्वेऽप्यास्रवा निरुद्धा भवंति ततो यद्यपि योगादिद्वारैः सास्रवो जंतुस्तथाऽपि रत्नत्रयं मोक्षपत्तनं नयतीति ॥७४१॥ इन्द्रियसंवरस्वरूपमाह इंदियकसायदोसा णिग्धिप्पंति तवणाणविणएहि । रज्जूहि णिधिप्पंति हु उप्पहगामी जहा तुरया ॥७४२।। इन्द्रियाणि कषाया द्वेषाश्चैते निगृह्यन्ते निरुध्यन्ते यथासंख्यं तपसा ज्ञानेन विनयेन । इन्द्रियाणि आना है, अतः इन सबका निरोध करना चाहिए। इनके रुक जाने पर जो होता है, सो बताते हैं गाथार्थ-कषायों के रुक जाने पर मूल से आस्रव रुक जाते हैं जैसे वन में जल के रुक जाने पर नौका नहीं चलती है ॥७४१॥ आचारवृत्ति-कषायों के रुक जाने पर जड़ मूल से सभी आस्रव रुक जाते हैं । जैसे स्रोत के जल को रोक देने पर या जल आने के छिद्र को बन्द कर देने पर नौका में जल नहीं आता है, अथवा नारियल आदि के त्वक् (रस्सी) आदि से बँधी हुई नौका में यद्यपि पानी आने के द्वार होने पर भी वह तीर को प्राप्त करा देती है। अथवा वह विनष्ट नहीं होती है। अर्थात् कषायों के रुकने पर आस्रव रुक जाते हैं। जैसे पानी आने के द्वार सहित नाव है फिर भी पानी के रोक देने पर उस नाव में सभी तरफ से पानी रुक जाता है तब वह नाव मनुष्य को उसके इष्ट स्थान पर पहुँचा देती है अथवा उसकी इष्ट वस्तु नष्ट नहीं होती है, जल में नहीं डूबती है। इस तरह कषायों के रुक जाने पर मल से सभी आस्रव रुक जाते हैं। यद्यपि योग आदि के द्वारा जीव-क्षीण मोह और सयोग केवली आस्रव सहित हैं फिर भी वे अपने रत्नत्रय को मोक्षनगर में ले जाते हैं । यह अभिप्राय हुआ। ___ इन्द्रिय संवर का स्वरूप कहते हैं -- गाथार्थ-इन्द्रिय, कषाय और दोष ये तप, ज्ञान और विनय के द्वारा निगृहीत होते हैं । जैसे कुपथगामी घोड़े नियम से रस्सी से निगृहीत किये जाते हैं ॥७४२॥ १. यथासंख्येन द०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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