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________________ २४ ] पुनरप्यास्त्रवानाह--- हिंसादिहिं पंचहि आसवदारेहि आसवदि पावं । तु ध्रुव विणासो सासवणावा जह समुद्दे ॥ ७३८ ॥ हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहैः पंचभिरास्रवद्वारैरास्रवति कर्मोपढोकते पापं । तेभ्यश्चाश्रितेभ्यो ध्रुवो निश्चयरूपो विनाशो जीवस्य भवति । यथा सास्रवा नौः पोतः समुद्रे निमज्जति, एवं कर्मास्रवैर्जीवः संसारसागरे निमज्जतीति ।।७३८ || आसवानुप्रेक्षामुपसंहरन्नाह एवं बहुप्पयारं कम्मं आसवदि दुट्ठमट्टविहं । णाणावरणादीयं दुक्खविवागं ति चितेज्जो ||७३६|| [ मूलाचारे एवं ज्ञानावरणादिकं कर्माष्टविधं भेदेन बहुप्रकारं दुष्टं वाऽऽस्रवति यस्मात्तस्मात्तमात्रवं दुःखविपाकमिति कृत्वा चिन्तयेत् भावयेदिति ॥ ७३१ ॥ यस्मादेवमास्रवैः कर्मास्रवति तस्मात्संवरमाह तम्हा कम्मासवकारणाणि सव्वाणि ताणि रुंधेज्जो । इं दियकसाय सण्णागारवरागादिआदीणि ॥ ७४० ॥ तस्मात्कमत्रिवकारणानि सर्वाणि यानि तानि निरोधयेत् निवारयेत् । कानि तानि ? इन्द्रियकषायपुनरपि आस्रवों को कहते हैं गाथार्थ - हिंसा आदि आस्रव-द्वार से पाप का आना होता है। उनसे निश्चित ही विनाश होता है । जैसे जल के आस्रव से सहित नौका समुद्र में डूब जाती है ।।७३८ ।। आचारवृत्ति--हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच आस्रवद्वारों से पाप-कर्म आते हैं और इन कर्मों के आने से निश्चित ही जीव का विनाश होता है। जैसे कि जल के आने के द्वार सहित नौका समुद्र में डूब जाती है । इस प्रकार से कर्मों के आस्रव से यह जीव संसार सागर में डूब जाता है—यह अभिप्राय हुआ । आस्रव-अनुप्रेक्षा का उपसंहार करते हुए कहते हैं गाथार्थ- - इस तरह बहु-प्रकार का कर्म दुष्ट है, जो कि ज्ञानावरण आदि से यह आठ प्रकार का है तथा दुःखरूप फलवाला है ऐसा चिन्तवन करे । ।७३६ ।। आचारवृत्ति - इन उपर्युक्त कारणों से ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार का कर्म, अपने भेदों से अनेक प्रकार का है अथवा दुष्ट-दुःखदायी है । वह आता है इसी का नाम आस्रव है । सो इन आस्रवों का फल दुःखरूप है, इस प्रकार से भावना करो । यह आत्रवानुप्रेक्षा हुई। जिस कारण इन आस्रवों से कर्म आता है, इस कारण ही संवर को कहते हैं Jain Education International गाथार्थ - इन्द्रियाँ, कषाय, संज्ञा, गौरव, राग आदि ये कर्मास्रव के कारण हैं । इसलिए इन सबका निरोध करें ।। ७४० ॥ आचारवृत्ति- - अतः जो कर्म के आने के कारण हैं उन सबका निवारण करना चाहिए । इन्द्रिय, कषाय, संज्ञा, गौरव और राग-द्वेष आदि हैं । अर्थात् इन्हीं कारणों से आत्मा में कर्मों का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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