________________
द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः ]
एकाग्रचित्तमन्तरेणैतानिन्द्रियविषयान्निग्रहीतुं दुःखमेतेषां रूपरसगंधस्पर्शशब्दविपयाणामिन्द्रियाणां निग्रहं कर्त्तुं न शक्यते चलचित्तेन । यथा मंत्रौषधिहीनेन दुष्टा आशीविषाः सर्पा वशीकर्तुं न शक्यन्त
इति ।।७३४ ॥
धिग्भवतु तानीन्द्रियाणि येषामिन्द्रियाणां वशतो वशं गतः पापमर्जयित्वा च पापं संगृह्य प्राप्नोति, तस्य पापस्य विपाकं फलं भवगतिषु च दुःखमनंतं प्राप्नोतीति ।।७३५||
संज्ञागौरवाणां स्वरूपमाह -
साहिं गारवेहि अ गुरुओ गुरुगं तु पावमज्जणिय । तो कम्मभारगुरुओ गुरुगं बुक्खं समणुभवइ ||७३६॥ आहारादिसंज्ञाभि
वैश्च गुरुः सन् गुरुकं तु पापमर्जयित्वा पापभारं स्वीकृत्य ततः पापभारेण गुरुर्भूत्वा ततो गुरुकं दुःखं समनुभवतीति ॥ ७३६॥
कषायास्रवस्वरूपमाह
कोधो माणो माया लोभो य दुरासया कसायरिऊ | दोससहस्सावासा दुक्खसहस्साणि पावंति ॥ ७३७॥
[ २३
क्रोधमानमाया लोभा दुराश्रया दुष्टाश्रयाः कषायरिपवः दोषसहस्राणामावासाः दुःखसहस्राणि जीवान् प्रापयंति - दुःखसहस्रः कषाया जीवान् संबंधय-तीत्यर्थः ॥ ७३७॥
श्राचारवृत्ति - एकाग्रचित्त के बिना चंचल चित्तवाले मनुष्य को पाँचों इन्द्रियों के रूप रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द इन विषयों का निग्रह करना शक्य नहीं है जैसे कि, मन्त्र और औषधि से रहित मनुष्य को दुष्ट आशीविष सर्पों का वशीकरण करना शक्य नहीं है। इसलिए इन इन्द्रियों को धिक्कार हो कि जिनके वश में हुआ यह जीव पाप का संग्रह करता है और उस पाप के फलस्वरूप चारों गतियों में अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है ।
संज्ञा और गौरव का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ -- संज्ञा और गौरव से भारी होकर तीव्र पाप का अर्जन करके उससे कर्म के भार से गुरु होकर महान् दुःखों का अनुभव करता है || ७३६||
श्राचारवृत्ति- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं द्वारा और रस आदि तीन गौरवों द्वारा गुरु अर्थात् भारभूत होता हुआ यह जीव गुरुक--अनेक पाप-भार को स्वीकार करके पुनः उस पापभार से गुरु — भारी होकर गुरुक- बहुत से दुःखों का अनुभव करता है ।
Jain Education International
कषायास्रव का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ – क्रोध, मान, माया और लोभ ये दुष्ट आश्रयरूप कषाय शत्रु हज़ारों दोषों के स्थान हैं, ये हज़ारों दुःखों को प्राप्त कराते हैं ।।७३७||
श्राचारवृत्ति -- ये क्रोध - मान-माया-लोभ रूपी कषाय शत्रु, दुष्ट आश्रयरूप हैं | हज़ारों दोषों के आवास स्थान हैं, ये जीवों को हज़ारों दुःख प्राप्त कराते हैं । अर्थात् ये कषाय हजारों दुःखों के साथ जीव का सम्बन्ध करा देते हैं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org