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________________ १८ ] [ मूलाचारे कर्मोदयजनित त्रस्तता, शोक: शोककर्मोदयपूर्व केष्टवियोगज: संतापः, कलिर्वचनप्रतिवचनकृतो द्वन्द्वः, रागो रतिकर्मोदयजनिता प्रीतिः, द्वेषोऽरतिकर्मोदयोद्भूताऽप्रीतिः, मोहो मिथ्यात्वासंयमादिरूप इत्येवमादीनामशुभानामावहोऽवस्थानं, अर्थः स्त्रीवस्त्रसुवर्णादिरूपः, अथवैतान्यशुभान्यावहति प्रापयतीति आयासाद्यशुभावहः, अनर्थानां च सर्वपरिभवानं च मूलं कारणमर्थस्तस्मात्तेन यच्छुभं तच्छुभं एव न भवतीति ॥७२३॥ तथा कामसुखमप्यशुभमिति प्रतिपादयति' दुग्गमदुल्लहलामा भयपउरा अप्पकालिया लहुया। कामा दुक्खविवागा असुहा सेविज्जमाणा वि ॥७२४॥ दुःखेन कृच्छ्रण गम्यन्त इति दुर्गमा' विषमस्था दुरारोहाः, दुर्लभो लाभो येषां ते दुर्लभलाभाः स्वेप्सितप्राप्तयो न भवन्ति, भयं प्रचुर येभ्यस्ते भयप्रचुरा दंडमारणवंचनादिभयसहिताः; अल्पकाले भवा अल्पकालिकाः सुष्ठ स्तोककालाः, लघुका नि:साराः, के ते? कामा मैथुनाद्यभिलाषा दुःखं विपाक फलं येषां आयास है । असातावेदनीय कर्म के उदय के निमित्त से जो खेद होता है वह दुःख है। मरणान्त द्वेष को वैर कहते हैं। भय कर्म के उदय से जो त्रास होता है वह भय है । शोक कर्म के उदय पूर्वक इष्ट वियोग से उत्पन्न हुआ सन्ताप शोक है । वचन-प्रतिवचन रूप द्वन्द्व कलह है। अर्थात् आपस में झगड़ने का नाम कलह है। रतिकर्म के उदय से उत्पन्न हुई प्रीति राग है । अरतिकर्म के उदय से उत्पन्न हुई अप्रीति द्वेष है। मिथ्यात्व, असंयम आदि रूप परिणाम मोह हैं। ये सब अशुभ कहलाते हैं । अर्थ से ही ये सभी अशुभ परिणाम होते हैं। अथवा यह अर्थ ही सभी अशुभों को प्राप्त कराने वाला है। स्त्री, वस्त्र, सुवर्ण आदि को अर्थ कहते हैं। यह अर्थ सर्व अनर्थों का मूल है। अर्थात् इससे नाना प्रकार के परिभव तिरस्कार प्राप्त होते हैं। इसलिए इससे जो शुभ होता है वह शुभ ही नहीं है। ऐसा समझना । अर्थात् धन, स्त्री आदि पदार्थों से जो कुछ भी सुख प्रतीत है वह सुख नहीं है, प्रत्युत सुखाभास ही है । कामसुख भी अशुभ हैं ऐसा दिखाते हैं गाथार्थ-जो दुःख से और कठिनता से मिलते हैं, भय प्रचुर हैं, अल्पकाल टिकनेवाले हैं, तुच्छ हैं, जिनका परिणाम दुःखरूप है, ऐसे ये इन्द्रिय-विषय सेवन करते समय भी अशुभ ही हैं ॥७२४॥ आचारवृत्ति-पंचेन्द्रियों के विषय-सुखों को कामसुख कहते हैं। ये विषय सुख-दुःख मिलनेवाले होने से दुर्गम हैं, अर्थात् विषम स्थितिवाले और दुरारोह हैं। इनकी प्राप्ति बड़ी कठिनता से होती है, अतः ये दुर्लभ हैं, अर्थात् इच्छित की प्राप्ति नहीं हो पाती है। इनसे भय की प्रचुरता है, अर्थात् इनसे दण्ड, मरण, वंचना आदि भय होते ही रहते हैं, ये क्षणिक हैं, अर्थात् स्वल्पकाल ठहरनेवाले हैं , निस्सार हैं, ऐसे मैथुन आदि की अभिलाषा रूप जो ये कामसुख १. प्रतिपादयन्नाह क० २. सुष्ठु विषमस्था क० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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