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________________ द्वावशानुप्रेक्षाधिकारः] [१७ णाऊण लोगसारं णिस्सारं दोहगमणसंसारं । लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥७२१।। एवं लोकस्य सारं निःसारं तु ज्ञात्वा दीर्घगमनं संसारं च ज्ञात्वा संसारं चापर्यन्तमवबुध्य लोकाग्रशिखरवासं मोक्षस्थानं सुखवासं निरुपद्रवं ध्यायस्व चिन्तय प्रयत्नेनेति ॥७२१।। मशुभानुप्रेक्षास्वरूपं निरूपयन्नाह णिरिएसु असुहमेयंतमेव तिरियेसु बंधरोहादी । मणुएसु रोगसोगादियं तु दिवि माणसं असुहं ॥७२२॥ नरकेष्वशुभमेकान्ततः सर्वकालमशुभमेव, तिर्यक्षु महिषाश्ववारणादिषु बंधरोधादयो बधनधरणदमनदहनताडनादयः, मनुष्येषु रोगशोकादयस्तु, दिवि देवलोके मानसमशुभं परप्रेषणवाहनमहद्धिकदर्शनेन मनोगतं सुष्ठु दुःखमिति ॥७२२॥ सथार्थद्वारेण दुःखमाह प्रायासक्खवेरभयसोगकलिरागदोसमोहाणं । असुहाणमावहो वि य अत्थो मूलं अणत्थाणं ॥७२३।। आयासोऽर्थार्जनतत्परता, दुःखमसातावेदनीयकर्मोदयनिमित्तासुखरूपं, वैरं मरणानुबंधः, भयं भय गाथार्थ-बहुत काल तक भ्रमण रूप संसार निस्सार है। ऐसे इस लोक के स्वरूप को जानकर सुख के निवासरूप लोकाग्रशिखर के आवास का प्रयत्नपूर्वक ध्यान करो।।७२१॥ प्राचारवृत्ति—इस तरह इस लोक का सार निस्सार है तथा यह संसार अनन्त अपार है-ऐसा जानकर जो लोकाग्रशिखरवास मोक्ष स्थान है वही निरुपद्रव है। तुम सर्वप्रयत्न पूर्वक ऐसा चिन्तवन करो। इस तरह लोक भावना का वर्णन हुआ। अशुभ अनुप्रेक्षा का स्वरूप निरूपित करते हैं गाथार्थ-नरकों में एकान्त से अशुभ ही है । तिर्यंचों में बन्धन और रोधन आदि, मनुष्यों में रोग, शोक आदि और स्वर्ग में मन सम्बन्धी अशुभ है ।।७२२॥ प्राचारवृत्ति-नरक में एकान्त से सर्वकाल अशभ ही है। भैस, घोड़ा, हाथी, बकरा तिर्यंचों में बाँधना, र कना. दमन करना, जलाना, ताड़न करना, पीटना आदि दुःख प्राप्त होते हैं। मनष्यों में रोग, शोक आदि अशभ दःख होते हैं। तथा स्वर्ग में देवों को मानसिक दुःख होता है, सो ही अशुभ है । अर्थात् दूसरे देवों द्वारा प्रेरित होकर भृत्य कार्य करना, दूसरों के वाहन बनना अथवा अन्य देवों की महान् ऋद्धियों को देखकर मन में खिन्न होना-ये सब मनो.. गत अत्यन्त दुःख होते हैं। अर्थ के द्वारा जो दुःख होते हैं उन्हें दिखाते हैं गाथार्थ-धन सब अनर्थों का मूल है । उससे श्रम, दुःख, वैर, भय, शोक, कलह, राग द्वेष और मोह इन अशुभों का प्रसंग होता ही है ।।७२३॥ प्राचारवृत्ति-धन का उपार्जन करने में प्रयत्नशील होने से जो खेद होता है वह १. दीर्घगमनसंसारं क० २. अश्वमहिषवारणादिसु क० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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