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________________ [ मुलाचारे अस्मिल्लोके संसारे माता च भवति दुहिता सुता, दुहिता च पुनर्मातृत्वभुपैति प्राप्नोति, पुरुषोऽपि तत्र जगति स्त्री भवति, स्यपि पुमान्, पुरुषोऽपुमान्नपुंसकं च लोके भवतीति संबंधः ॥७१८॥ पुनरपि लोकगतसंसारविरूपतां दर्शयन्नाहः होऊण तेयसत्ताधिनो'दु बलविरियरूवसंपण्णो । जादो वच्चघरे किमि धिगत्थु संसारवासस्स ॥७१६॥ विदेहस्वामी राजा तेजः-प्रतापः सत्त्वं-स्वाभाविकसोष्ठवं ताभ्यामधिकस्तेजःसत्वाधिको भूत्वा तथा बलवीर्यरूपसम्पन्नश्च भूत्वा पश्चात्स राजा वर्नोगहेऽशुचिस्थाने कृमि: संजातो यत एवं ततः संसारवास धिगस्तु धिग्भवतु संसारे वासमिति ।।७१६॥ पुनरपि लोकस्य स्वरूपमाह "धिग्भवदु लोगधम्म देवा वि य सुरवदीय महड्ढीया । भोत्तूण सुक्खमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति ॥७२०॥ धिग्भवतु लोकधर्म लोकस्वरूपं, यस्माद्देवः सुरपतयोऽपि महद्धिका महाविभूतयो भूत्वा सोख्यमतुलं सुखमनुपमं भुक्त्वा पुनरपि दुःखवहा भवन्ति दुःखस्य भोक्तारो भवन्तीति ॥७२०॥ लोकानुप्रेक्षामुपसंहरन्नाह प्राचारवत्ति-इस संसार में माता पुत्री हो जाती है और पुत्री मातपने को प्राप्त हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है, स्त्री पुरुष हो जाती तथा पुरुष नपुंसक हो जाता है। ऐसे परस्पर में असमंजस अघटित सम्बन्ध भी होते रहते हैं। पुनरपि लोकगत संसार की विरूपता दिखाते हैं। गाथार्थ-प्रताप और पराक्रम से अधिक तथा बल, वीर्य और रूप से सम्पन्न होकर भी राजा विष्ठागृह में कोड़ा हो गया। अतः संसारवास को धिक्कार हो ।।७१९।। प्राचारवत्ति-विदेहदेश का राजा अधिक प्रतापी और स्वाभाविक सौष्ठव से सहित होने से अधिक सत्वशाली था। बल, वीर्य और रूप से सहित था। फिर भी वह मरकर अपवित्र स्थान में कृमि हो गया। इस संसार की ऐसी ही स्थिति है। अतः इस संसार में वास करने को धिक्कार ! पुनः लोक की स्थिति स्पष्ट करते हैं गाथार्थ---इस लोक की स्थिति को धिक्कार हो जहाँ पर देव, इन्द्र और महद्धिक देवगण भी अतुल सुख को भोगकर पुनः दुःखों के भोक्ता हो जाते हैं ।।७२०॥ प्राचारवृत्ति-इस संसार के स्वरूप को धिक्कार कि जिसमें महाविभूतिमान देव और इन्द्र अनुपम सुख को भोगकर पुनः मरकर गर्भवास आदि में दुःख के अनुभव करनेवाले हो जाते हैं। लोकानुप्रेक्षा का उपसंहार करते हुए कहते हैं १. सत्ताहिमोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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