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________________ पावशानुप्रेक्षाधिकार ] [ १६ बंधनादि ते दुःखविपाका दुःखावसाना: अशुभाः सेव्यमाना अपि, तत्राऽपि न सुखमस्तीति भावः सर्वाशुभमेवेति ॥७२४॥ आहारादपि न सुखं भवतीत्याह असुइविलिविले गन्भे वसमाणो वत्थिपडलपच्छण्णो। माइसिभ'लालाइयं तु तिव्वासुहं पिबदि ॥७२५॥ अशुच्याविले मूत्रपुरीषश्लेष्मपित्तरुधिरादिबीभत्से, गर्भ उदराभ्यंतरे, वसन् संतिष्ठमानः, वस्तिपटलप्रच्छन्नः जरायुरावृतः, मातृश्लेष्मलालायित जनन्या चर्वितं श्लेष्मलालासमन्वितं रसं तीव्र दुर्गन्धं पिबति यत एवंभूतो मूलाहारस्ततः कथमाहारात सुखमित्याहारोऽप्यशुभरूप एवेति ॥७२५।। शरीरमप्यशुभमिति निरूपयन्नाह-- मंसद्धिसिंभवसरुहिरचम्मपित्तं तमुत्तकुणिपकुडि । बहुदुक्खरोगभायण सरीरमसुभं वियाणाहि ॥७२६॥ मांसास्थिश्लेष्मवसारुधिरचर्मपित्तांत्रमूत्रकुणिपाशुचिकुटी गृहमेतेषां बहुदुःखरोगभाजनं शरीरमिदमशुभमशुचि विजानीहीति ॥७२६॥ तस्मात्हैं इनके विपाक फल अन्त में दुःखदायी ही हैं। ये सेवन करते समय भी अशुभ ही हैं । अर्थात् इनके सेवनकाल में भी सुख नहीं है, प्रत्युत वह सुख की कल्पना मात्र है। इसलिए सर्व अशुभ ही आहार से भी सुख नहीं होता है, सो ही कहते हैं गाथार्थ-अशुचि से व्याप्त गर्भ में रहता हुआ यह जीव जरायु पटल से ढका हुआ है । वहाँ पर माता के कफ और लार से युक्त अतीव अशुभ को पीता है ।।७२५॥ प्राचारवृत्ति-मल, मूत्र, कफ, पित्त, रुधिर आदि से बीभत्स-ग्लानियुक्त ऐसे माता के उदर में तिष्ठता हुआ यह जीव वहाँ पर जरायुपटल से आवृत्त हो रहा है। वहाँ पर माता के द्वारा खाये गये भोजन से बने हुए कफ, लार आदि से सहित अत्यन्त दुर्गन्धित रस पीता रहता है । यदि जीव का मूल आहार ऐसा है तो फिर आहार से कैसे सुख होगा ? इस लिए आहार भी अशुभ रूप ही है, ऐसा समझना। शरीर भी अशुभ है ऐसा निरूपण करते हैं--- गाथार्थ-मांस, अस्थि, कफ, वसा, रुधिर, चर्म, पित्त, आंत, मूत्र इन अपवित्र पदार्थों की झोंपड़ी रूप बहुत प्रकार के दुःख और रोगों के स्थान स्वरूप इस शरीर को अशुभ ही जानो॥७२६॥ आचारवृत्ति-यह शरीर मांस, हड्डी, कफ, मेद, रक्त, चमड़ा, पित्त, आंत, मूत्र और मल इन अशुभ पदार्थों का घर है । तीव्र दुःखकर रोगों का स्थान है । ऐसा यह शरीर तुम अशुभ-अपवित्र जानो। इसलिए क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं १. मादूसिभ लाला-६० क० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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