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________________ द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः ] स एव पुनस्तृतीयस्या उत्सपिण्यास्तृतीयसमये जातः स एवानेन क्रमेणोत्सपिणी परिसमाप्ता तथाऽवसर्पिणी च एवं जन्मनरन्तर्यमुक्त, मरणस्यापि तथैव ग्राह्य, यावत्तावत्कालपरिवर्तनमिति । भावपरिवर्तनमुच्यतेपंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तको मिथ्यादष्टिः कश्चिज्जीवः सर्वजघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृते: स्थितिमन्तःकोटयकोटीसंज्ञिकामापद्यते, तस्य कषायाध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकप्रमितानि षटस्थानपतितानि तत्स्थितियोग्यानि भवन्ति, तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभवाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति, एवं सर्वजघन्यां स्थिति सर्वजघन्यं च कषायाध्यवसानं सर्वजघन्यमेव चानुभागबंधस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वं जघन्यं योगस्थानं भवति, तेषामेव स्थितिकषायानुभवस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्त योगस्थानं भवति, एवं चतुःस्थानपतितानि कषायाध्यवसायस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति, तथा तामेव स्थिति तदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितीयानुभवाध्यवसायस्थानं भवति तस्य च योगस्थानानि पूर्ववदृष्टव्यानि, एवं तृतीयादिष्वप्यनुभवाध्यवसायस्थानेष्वसंख्येयलोकपरिसमाप्तेः, एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयकषायाध्यवसायस्थानं भवति तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि, एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु असंख्येयलोकपरिसमाप्तेवं द्धिक्रमो मर गया, वही जीव पुनः तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ। उसी क्रम से वहीं से उत्सपिणी के जितने समय हैं उनमें जन्म के क्रम से उत्सर्पिणी को समाप्त करे तथा अवसपिणी के भी जितने समय हैं उतने बार क्रम से जन्म के द्वारा अवसर्पिणी को भी समाप्त करे। इस तरह जन्म का निरन्तरपना कहा गया है। मरण का क्रम भी इसी तरह समझना चाहिए। अर्थात् वही जीव उत्सपिणी के प्रथम समय में मरा, पुनः दूसरी उत्सपिणी के द्वितीय समय में मरा, पुनः तृतीय उत्सर्पिणी के तृतीय समय में मरा । इसी क्रम से उत्सर्पिणी के समय प्रमाण मरण करके पुनः अवसपिणी के प्रथम समय में मरण करे, पुनः दूसरी अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरण करे। इसी क्रम से अवसर्पिणी के समयों को भी मरण से पूरा करे। तब एक काल परिवर्तन होता है। ४. भाव-परिवर्तन को कहते हैं-- कोई पंचेन्द्रिय,संज्ञो पर्याप्तक, मिथ्यादष्टि जीव सर्वजघन्य, स्वयोग्य ज्ञानावरण प्रकृति को अन्तःकोटाकोटी स्थिति को प्राप्त होता है, उसके कषाय-अध्यवसाय स्थान, असंख्यातलोक प्रमाण, षट् स्थान पतित उस स्थिति के याग्य होते हैं। वहाँ उसके सर्वजघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान के निमित्त अनुभव अध्यवसायस्थान असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं। इस तरह सर्वजघन्य स्थिति, सर्वजघन्य कषाय अध्यवसायस्थान और सर्वजघन्य ही अनुभागबन्धस्थान को प्राप्त करते हुए जोव के उसके योग्य जघन्य योगस्थान होता है। तथा उन्हीं स्थिति, कषाय और अनुभव स्थानों के असंख्यातभागवृद्धि युक्त दूसरा योगस्थान होता है। इस प्रकार से चतुः स्थान-पतित कषायअध्यवसायस्थान हाते हैं और श्रेणी के असंख्यात भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। तदनंतर पूर्वोक्त ही स्थिति और पूर्वोक्त ही कषाय अध्यवसायस्थान को प्राप्त करने वाले जीव के दूसरा अनुभागअध्यवसाय-स्थान होता है, उसके योगस्थान पूर्ववत् समझना चाहिए। इसी प्रकार तीसर चौथे आदि अनुभव-अध्यवसाय-स्थानों में भी असंख्यातलोक की परिसमाप्ति होने तक समझना चाहिए। इस प्रकार उसी स्थिति को प्राप्त करनेवाले के दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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