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________________ ८] [ मलाचारे समयेषु निर्जीर्णास्ततो गृहीतानंतवारानतीत्य मिश्रकाश्चानंतवारान्प्रगृह्य मध्ये गृहीतांश्चानंतवारान् समतीत्य तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनमिति । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन् समये जीवेनैकेनाष्टविधकर्मभावेन ये पुद्गला गृहीताः समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीणस्तितो गृहीतानगृहीतान्मिश्राननंतवारानतीत्य त एव कर्मस्कन्धास्तेनैव विधिना तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनमिति । क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-सूक्ष्मनिगोतजीवोऽपर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेशशरीरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्यप्रदेशान् कृत्वोत्प नः क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृतः स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिस्तथा चतुरित्येवं यावदंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वा तत्रैव जनित्वा पुनरे कैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति यावत्तावत् क्षेत्रपरिवर्तनमिति । कालपरिवर्तनमुच्यते-उत्सर्पिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्तौ मृतः स एव पुनद्वितीयाया उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषःक्षयान्मृतः प्तियों के योग्य जो पुद्गल वर्गणाएँ ग्रहण की हैं उन्हें तीव्र, मन्द और मध्यमरूप जैसे भावों से ग्रहण किया है तथा वे वर्गणाएँ स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण, गन्ध आदि से जिस प्रकार की हैं, द्वितीय आदि समयों में निर्जीर्ण हो गयीं। तदनन्तर वही जीव गृहीत पुदलवर्गणाओं को अनन्तवार ग्रहण करके छोड़ता जावे, पुनः मिश्र वर्गणाओं को अनन्तवार ग्रहण करके छोड़े पुनः मध्य में ग्रहण किये गये ऐसे गृहीत परमाणुओं को अनन्तवार ग्रहण करके छोड़े। पुनः वही जीव उस पहले समय के ग्रहण किये गये प्रकार से उतनी ही पुद्गल वर्गणाओं को उसी प्रकार के भावों से और वैसे ही स्निग्ध, रुक्ष, वर्ण गन्धवाले परमाणुओं को जब ग्रहण करता है तब उतने काल प्रमाण वह उसका नोकर्म परिवर्तन कहलाता है। कर्मद्रव्य परिवर्तन को बताते हैं एक जीव ने एक समय में आठ प्रकार के कर्मभाव से जो पदगल ग्रहण किये हैं। एक समय अधिक एक आवली प्रमाण काल को बिताकर द्वितीय आदि समयों में वे कर्म वर्गणाएँ निर्जीण हो गयीं । पुनः गृहीत, अगृहीत और मिश्र पुद्गल वर्गणाओं को अनन्तवार ग्रहण करके छोड़ देने के बाद वही जीव उन्हीं पूर्व के कर्म-स्कन्धों को उसी ही विधि से कर्मभाव से परिणमन कराता है। प्रारम्भ से लेकर तब तक के काल प्रमाण को कर्म द्रव्य-परिवर्तन कहते हैं । क्षेत्र-परिवर्तन का स्वरूप कहते हैं-सर्व जघन्य प्रदेश रूप शरीरधारी सूक्ष्म निगोद जीव, जो कि अपर्याप्तक है, लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य प्रदेश करके उत्पन्न हुआ, शुद्ध भव ग्रहणकर जीवित रहकर मर गया, वही जीव पुनः उसी अवगाहना को धारण कर दूसरी बार उत्पन्न हुआ, उसी तरह तीसरी बार उत्पन्न हुआ, तथैव चौथी बार उत्पन्न हआ। इसी तरह से अंगुल के असंख्यात भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतनी उसी जघन्य अवगाहना से जन्म लिया । पुनः वह एक-एक प्रदेश को अधिक ग्रहण करते हुए जितने काल में क्रम से सर्वलोक को अपने जन्म से जन्मक्षेत्ररूप कर लेता है तब उतने काल के हो जाने पर एक क्षेत्र-परिवर्तन होता है। ३. अब काल-परिवर्तन को कहते हैं कोई जीव उत्सर्पिणी के पहले समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु समाप्त होने पर मर गया, वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु के क्षय से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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