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________________ १.] [ मूलाधारे वेदितव्यः, उक्ताया जघन्यस्थिते: समयाधिकायाः कषायाध्यवसायस्थानानि अनुभागाध्यवसायस्थानानियोगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि, एवं समयाधिकक्रमेण आ उत्कृष्टस्थितेत्रिंशत्सागरोपमकोट्यकोटीपरिमितायाः कषायाध्यवसायस्थानानि वेदितव्यानि, एवं सर्वेषां कर्मणां मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनक्रमो वेदितव्यस्तदेतत्सर्व समुदितं भावपरिवर्तनमिति । चशब्देन सूचितं भवपरिवर्तनमुच्यते-नरकगती सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि तेनायुषा तत्र कश्चिदुत्पन्नः पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा तत्रव जात एवं दशवर्षसहस्राणां यावन्तः समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो तत्रैव मृतश्च पुनरेकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि, ततः प्रच्युत्त्य तिर्यग्गतावन्तर्मुहूर्तायुः समुत्पन्नः पूर्वोक्त नैव क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेनैव परिसमापितानि, तथैवं मनुष्यगतो देवगतौ च नरकगतिवत्, अयं तु विशेष:-एकत्रिशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि यावत्तावद्भवपरिवर्तनमिति। एवं चतुविध: पंचविधो वा संसारः चतुर्गतिगमननिबद्धो नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिभ्रमणहेतुको बहुप्रकारैः षट्सप्तादिभेदैर्ज्ञातव्य इति ॥७०६॥ तथा षड्विधसंसारमाह कषाय-अध्यवसाय स्थान होता है, उसके भी अनुभव-अध्यवसाय स्थान और योगस्थान पूर्ववत् जानना चाहिए। इस प्रकार तृतीय चतुर्थ आदिक कषाय-अध्यवसाय-स्थानों में असंख्यातलोक परिसमाप्ति तक वृद्धि का क्रम समझना चाहिए। ऊपर जो एक समय अधिक जघन्य स्थिति कही है उसके कषाय-अध्यवसाय-स्थान, अनुभाग-अध्यवसाय-स्थान और योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिए। इस प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से उत्कृष्ट स्थिति जो तीस कोड़ा-कोड़ी सागर पर्यन्त है वहाँ तक कषायअध्यवसायस्थान समझना चाहिए। ऐसे ही सर्व कर्मों की मूल प्रकृतियों का और उत्तर प्रकृतियों का परिवर्तन क्रम जानना चाहिए । यह सर्वसमुदित भावपरिवर्तन कहलाता है। ५. अब गाथा के 'च' शब्द से सूचित भवपरिवर्तन का कथन करते हैं-नरक गति में सर्वजघन्य आयु दश हजार वर्ष की है । कोई जोव उस जघन्य आयु से नरक में उत्पन्न हुआ। संसार में भ्रमण करके पुनः वही जीव उसी दश हजार वर्ष की आयु से उसी नरक में उत्पन्न हुआ, इसी तरह दश हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार उस जघन्य आयु से प्रथम नरक में जन्म लिया और मरण किया।पुनः एक-एक समय अधिक क्रम से तेतीस सागर पर्यन्त आयु को प्राप्त कर नरक के जन्म को समाप्त किया। वहाँ से निकलकर वही जीव तिर्यंचगति में अन्तर्मुहर्त प्रमाण जघन्य आयु से उत्पन्न हुआ । पुनःपूर्वकथित क्रम से तीन पल्य पर्यन्त उत्कृष्ट आयु तक पहुँच गया । इसी तरह मनुष्य गति में समझना । देवगति में नरकगति के समान है। किन्तु अन्तर इतना ही है कि देवगति में इकतीस सागर की आयु तक ही पहुँचना होता है। यह सब मिलकर 'भव परिवर्तन' होता है। यह चतुर्विध अथवा पंचविध संसार नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों में भ्रमण के निमित्त से होता है। तथा छह सात आदि भेदों से अनेक प्रकार का भी है ऐसा जानना चाहिए। छह प्रकार के संसार को कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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