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________________ ३८४] । मूलाचार एकैकप्रदेशे इत्यत्र वीप्लानिर्देशन सर्वात्मप्रदेशसंग्रहः कृतस्तेनाधारनिर्देशः कृतस्तेनैकप्रदेशादिषु न कर्मप्रदेशा प्रवर्तन्ते । क्व तहि ऊर्ध्वमधः स्थितास्तिर्यक् च सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । कर्मग्रहणं सर्वकर्मप्रकृतिसंग्रहार्थम् । अनेनोपादानहेतुसंग्रहः कृतः। प्रदेशा इति पुद्गलग्रहणं तेनाकाशादिप्रदेशनिवृत्तिः । अनन्तानन्त इति परिमाणान्तरव्यपोहार्थम् । तुशब्द: अनुक्तसर्वविशेषसंग्रहार्थः । न संख्येया, न चासंख्येयाः, नाप्यनन्तास्ते पुद्गलस्कन्धाः, किन्तु अभव्यानन्तगुणाः सिद्धानन्तभागप्रमिताः' घनांगुलस्यासंख्येयभागावगाहिनः । एकद्वित्रिचतुः समयस्थितिकाः। पंचवर्णरसद्विगंध चतुःस्पर्शभवाः । सूक्ष्मा: । अष्टविधकर्मप्रकृतियोग्या एकक्षेत्रावगा. हिनः स्थिता सर्वात्मप्रदेशेष योगवशादात्मना प्रदेशा: कर्मरूपेणात्मसात्क्रियन्ते । अयं प्रदेशबन्धः । अथवाऽऽत्मनो योमवशादष्टविधकर्महेतवोऽनन्तानन्तप्रदेशा एकैकप्रदेशे ये स्थितास्ते प्रदेशबन्ध इति । अष्टविधकर्मयोग्यपदगलानाम् एकंकसमयेन बन्धनमागतानां मध्ये आयुर्भागएकः। नामगोत्रयोरन्योन्यसमोऽधिक एकतरो भाग आयु चिपक जाते हैं इसलिए इन्हें एकक्षेत्रावगाही कहते हैं। 'स्थिता' यह क्रियापद अन्यक्रिया के निराकरण हेतु है अर्थात् ये आत्मा के प्रदेशों पर स्थित रहते हैं, अन्यत्र गमन नहीं करते है। 'एककप्रदेशे' इस वीप्सा निर्देश से सम्पूर्ण आत्मा के प्रदेशों का संग्रह हो जाता है। अर्थात् आत्मा के सर्व प्रदेश इन कर्मो के लिए आधारभूत हैं। इससे एक-दो आदि प्रदेशों में ही कर्मपरमाणु चिपके हैं सबमें नहीं. ऐसी बात नहीं, किन्तु ऐसी बात है कि वे सम्पूर्ण प्रदेशों में चिपके हैं। तो वे कर्मपरमाणु आत्मा के ऊपरी भाग में स्थित हैं अथवा नीचे हैं या मध्य में हैं, ऐसा प्रश्न नहीं हो सकता क्योंकि वे आत्मा के सभी प्रदेशों में व्याप्त होकर स्थित हैं । गाथा में जो 'कर्म' का ग्रहण है वह सम्पूर्ण कर्मों की सर्वप्रकृतियों का संग्रह कर लेता है, इससे उपादान हे का भी ग्रहण हो जाता है । 'प्रदेशाः' शब्द से पुद्गल के प्रदेशरूप परमाणु का ग्रहण होता है अतएव आकाश आदि के प्रदेशों का निराकरण हो जाता है । 'अनन्त' शब्द अनन्तानन्तपरिमाण को ग्रहण करता है । 'तु' शब्द अन्य परिमाणों की निवृत्ति के लिए सभी अनुक्त का संग्रह करने के लिए है, अर्थात् ये कर्म परमाणु न संख्यात हैं, न असख्यात हैं और न अनन्त हैं, किन्तु ये अभव्य राशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण होने से अनन्तानन्त हैं। ये घनांगल के असंख्यात भाग में अवगाहो हैं । ये एक, दो, तीन, चार आदि समय की स्थितिवाले हैं। इनमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दोगन्ध और चार स्पर्श होते हैं। ये सूक्ष्म हैं । आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों के योग्य हैं और जीव के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर सम्पूर्ण जीवप्रदेशों में रहते हैं, अर्थात् योग के वशीभूत हुए आत्मा के द्वारा ये अनन्तानन्त पुद्गल कर्मरूप से आत्मसात कर लिये जाते हैं। इसी का नाम प्रदेशबन्ध है। अथवा जो योग के वश से आते हैं, आठ प्रकार के कर्म के कारणभूत हैं और जो आत्मा के एक-एक प्रदेश पर रहते हैं उन अनन्तानन्त पुद्गल परमाणओं को प्रदेशबन्ध कहते हैं। एक समय में बन्धे हुए कर्मपरमाणु को समयप्रबद्ध कहते हैं। एक-एक समय में बन्धन को प्राप्त हुए अष्टविध कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं का आठों ही कर्मों में बटवारा हो जाता है। उसमें आयु को एकभाग मिलता है । नाम और गोत्र को परस्पर में समान भाग किन्तु आयु से १. क ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् सर्वेष्वात्म। २. क अभव्यानामनन्तगुणाः। ३. क सिद्धानामनन्तगुणाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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