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________________ पर्याप्यधिकारः] [ ३८५ र्भागाज ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां भागोऽन्योन्यसदृश एकतरः, नामगोत्रयोरेकतरभागाधिक: मोहस्य भाग आवरणान्त रायैकतरभागादधिक: मोहभागाद्वेदनीयभागोऽधिकः । सर्वत्र आवल्या असंख्यातभागेन भागे हृते यल्लब्धं तेनाधिक इति । एवं सप्तविधबन्धकानां षड्विधबन्धकानां च ज्ञातव्यम् । ज्ञानावरणादीनामात्मप्रदेशभाग आत्मात्मेतरप्रकृतयो यावत्यस्तावद्भागरभिगच्छन्ति ॥१२४७।। एवं बन्धपदार्थो व्याख्यातः संक्षेपतः, इत ऊर्ध्वमुपशमनविधि क्षपणविधिं च प्रपंचयन्नाह मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव । उव्वज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं ॥१२४८॥ मोहस्यावरणयोरन्तरायस्य च क्षयेण विनाशेनैवोत्पद्यते केवलं केवलज्ञानं प्रकाशकं सर्वभावानां सर्वद्रव्यपर्यायपरिच्छेदकम। अथशब्देन सत्रणवमपशमनविधि तावत्प्रतिपादयामि-अनन्तानुबन्धिक्रोधम मायालोभसम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्पमिथ्यात्वानीत्येताः सप्त प्रकृती: असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तादीनां मध्ये कोऽप्येक उपशमयति । तत्राधःप्रवृत्यपूर्वनिवृत्तिकरणानि कृत्वा अनिवृत्तिकरणकालस्य संख्येयेषु चतष्क स्थितिसत्कर्मोपशमं याति, स्वस्वरूपं परित्यज्यान्यस्य अधिक एक-एक भाग मिलता है। ज्ञानावरण. दर्शनावरण और अन्तराय को परस्पर में सदृश किन्तु नामगोत्र के भाग की अपेक्षा अधिक एक-एक भाग मिलता है। मोहकर्म को इन आवरणों और अन्तराय की अपेक्षा अधिक एक-एक भाग मिलता है । और मोहकर्म के भाग की अपेक्षा अधिक भाग वेदनीय कर्म को मिलता है। आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर जो बन्ध आवे उतना एक भाग सर्वत्र अधिक जानना चाहिए। इसी तरह सात प्रकार के कर्मों का बन्ध जिन्हें होता है अर्थात् जिन्हें आयु का बन्ध नहीं होता है उनके लिए सात कर्मों में उपर्युक्त कथित क्रम से ही बटवारा होता है। जिनके छह कर्मों का बन्ध हो रहा है, मोहनीय और आयु का बन्ध नहीं हो रहा है ऐसे जीवों के भी उन्हीं छह कर्मों में बटवारा होता है, ऐसा समझना। ज्ञानावरण आदि कर्मो का अपना प्रदेश भाग अपनी-अपनी प्रकृतियों (समान्तर भेदों) में बँट जाता है। इस प्रकार बन्ध पदार्थ का संक्षेप से व्याख्यान हुआ। इससे आगे अब उपशमन विधि और क्षपणविधि कहते हैं गाथार्थ-मोहकर्म तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से सर्वपदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है ॥१२४८।। आचारवत्ति-मोह के विनाश से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के विनाश से सर्वद्रव्य और पर्यायों को जाननेवाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है। गाथा के 'अथ' शब्द से सूचित इस सूत्र के द्वारा ही अब उपशमन विधि कहूँगा। अनन्तानबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यङ मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत में से कोई एक गुणस्थानवी जीव उपशमन करता है। उसमें यह अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करता है अर्थात् दो करण करने के पश्चात् अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भागरूप काल के व्यतीत हो जाने पर विशेषघात से नष्ट किया ऐसा अनन्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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