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________________ पधिकारः ] चतुःस्थानं शुभप्रकृतीनामेतदिति । गुरुलधूपघातपरघातात पंचशरीरषट्संस्था नत्र्यं गोपांगषट्संहनन पंचवर्णद्विगन्धपंच रसाष्टस्पर्शा पोद्योतनिमानप्रत्येक साधारण स्थिरास्थिर शुभाशुभा एता प्रकृतयः पुद्गलविपाकाः, पुद्गल परिणामिन्यो यत इति । चत्वार्यायूंषि भवविपाकानि भवधारणत्वाच्चत्वार्यानुपूर्व्याणि क्षेत्रविपाकानि क्षेत्रमाश्रित्य फलदानात् । शास्तु प्रकृतयो जीवविपाका जीवपरिणामनिमित्तत्वादिति ।। १२४६॥ अनुभागबन्धं व्याख्याय प्रदेशबन्ध प्रतिपादयन्नाह - सुमे जोगविसेसेण एगखेत्तावगाढ ठिदियाणं । एक्के दुपदेसे कम्मपदेसा अनंता दु ।। १२४७॥ सहमे-सूक्ष्माः न स्थूला, जोगविसेसेण - योगविशेषेण मनोवचनकार्याविशिष्टव्यापाराद् एगखेत्तावगाढ - एक क्षेत्रावगाहिनो न क्षेत्रान्तरावगाहिनः यस्मिन्नेवात्मा कर्मादानरतस्ततः परस्मिन् क्षेत्रे ये पुद्गलास्ते इति ठिदियाणं — स्थिताः न गच्छन्तः एक्केक्के तु पदेसे - सर्वात्मप्रदेशेषु कम्मपदेसा - कर्म प्रदेशाः ज्ञानावरणादिनिमित्तपरमाणवः अणन्ता दु - अनन्तास्तु | सूक्ष्मग्रहणं ग्रहणयोग्य पुद्गलस्वभावानुवर्णनाथं वर्णग्रहणयोग्याः पुद्गलाः सूक्ष्माः, न स्थूलाः । एकक्षेत्रावगाहवचनं क्षेत्रान्तरनिवृत्त्यर्थम् एकक्षेत्रं कर्मादानशक्तियुक्त जीवसहचरितप्रदेशे अवगाहो येषां एकक्षेत्रावगाहः स्थिता इति क्रियान्तरनिवृत्त्यर्थम् स्थिता न गच्छन्तः, [ ३८३ अशुभ प्रकृतियों के स्थान हैं । गुडवत् एकस्थान, खण्डवत् द्विस्थान, शर्करावत् त्रिस्थान और अमृतवत् चतुःस्थान ये शुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध के स्थान हैं। पाँच शरीर, छह संस्थान, तोन अंगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, निमान (निर्माण), प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ 'और अशुभ ये बावन' प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं; क्योंकि ये पुद्गलों में परिणमन करती हैं अर्थात् इनके उदय से पुद्गलों में परिणमन होता है। चारों आयु भवविपाकी हैं, क्योंकि ये भव को धारण करती हैं। चारों आनुपूर्व्य क्षेत्रविपाकी हैं, क्योंकि वे क्षेत्र के आश्रय से फल देती हैं। शेष प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं, क्योंकि ये जीव के परिणाम में निमित्त हैं । अनुभागबन्ध का व्याख्यान करके अब प्रदेशबन्ध को कहते हैं Jain Education International गाथार्थ -जो सूक्ष्म हैं, योगविशेष से एक क्षेत्र में स्थित हैं आत्मा के ऐसे एक-एक प्रदेश पर अनन्त कर्मप्रदेश हैं ।। १२४७॥ आचारवृत्ति - जो पुदगल सूक्ष्म हैं, स्थूल नहीं हैं, मन-वचन-काय के विशिष्ट व्यापार रूप योग विशेष से आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही हैं अर्थात् जिस क्षेत्र में आत्मा कर्मों को ग्रहण करने में तत्पर है उसी क्षेत्र में, आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में स्थित हैं । ज्ञानावरण आदि के निमित्तरूप वे परमाणु अनन्त हैं । कर्मरूप से ग्रहण करने योग्य पुद्गल का स्वभाव बताने के लिए गाथा में 'सूक्ष्म' शब्द का ग्रहण है । ये कर्मपुद्गल सूक्ष्म ही हैं, स्थूल नहीं हैं । 'एक क्षेत्रावगाह' शब्द का ग्रहण भिन्न क्षेत्र की निवृत्ति के लिए है । एक क्षेत्र में - कर्म के ग्रहण करने की शक्ति से युक्त जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में इनका अवगाह है अर्थात् ये जीव के प्रदेश में एकमेक रूप होकर १. पांच बन्धन और पांच संघात की भेदविवक्षा करने से ये बासठ हो जाती हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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