SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्याप्त्यधिकारः [] [ ३६६ भोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम । बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणशरीरं यतो भवति तत्साधारणशरीरनाम । यस्य कर्मण उदयाद् रसरुधिरमेदमज्जास्थिमांसशुक्राणां सप्तधातूनां स्थिरत्वं भवति तत्स्थिरनाम । यदुदयादेतेषाम स्थिरत्वमुत्तरपरिणामो भवति तदस्थिरनाम । यदुदयादंगोपांगनामकर्मजनितानामंगानामुपगानां च रमणीयत्व तच्छुभनाम, तद्विपरीतमशुभनाम । यदुदयात्स्त्रीपुंसयोरन्योन्यप्रीतिप्रभवं सौभाग्यं भवति तत्सुभगनाम । यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतोऽप्यप्रीतिकरस्तदुभंगनाम । चशब्दो नामशब्दस्य समुच्चयार्थः । यस्य कर्मण उदयेनादेयत्वं प्रभोपेतशरीरं भवति तदादेयनाम । यदुदयादनादेयत्वं निष्प्रभशरीरं तदनादेयनाम, अथवा यदुदयादादेयवाच्यं तदादेयं विपरीतमनादेयमिति । शोभनः स्वरः मधुरस्वरः यस्योदयात्सुस्वरत्वं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं भवति तत्सुस्वरनाम । यदुदयात् दुःस्वरताऽमनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तद् दुःस्वरनाम । पुण्यगुणाख्यापनकारणं यशः कीर्तिनाम, अथवा यस्य कर्मण उदयात्सद्भूतानामसद्भूतानां च ख्यापनं (२७) शरीर नामकर्म के उदय से रचा हुआ और एक आत्मा के लिए उपभोग का कारण शरीर जिससे होता है वह प्रत्येकशरीर नामकर्म है । (२८) अनेक आत्माओं के लिए उपभोगहेतुक शरीर जिससे होता है वह साधारणशरीर नामकर्म ह । (२९) जिस कर्म के उदय से रस, रुधिर, मेद, मज्जा, हड्डी, मांस और शुक्र इन सात धातुओं की स्थिरता होती है वह स्थिर नामकर्म है । (३०) जिस कर्म के उदय से इन धातुओं में उत्तरोत्तर अस्थिररूप परिणमन होता जाता है वह अस्थिर नामकर्म है । (३१) जिसके उदय से अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न हुए अंगों और उपांगों में रमणीयता आती है वह शुभ नामकर्म है । (३२) इससे विपरीत को अशुभ नामकर्म कहते हैं । (३३) जिसके उदय से स्त्री और पुरुष में परस्पर प्रीति से उत्पन्न हुआ सौभाग्य होता है वह सुभग नामकर्म है । (३४) रूपादि गुणों से सहित होते हुए भी लोगों को जिसके उदय से अप्रीतिकर प्रतीत होता है उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं । (३५) जिस कर्म के उदय से आदेय - प्रभासहित शरीर होता है वह आदेय नाम कर्म है ! (३६) जिसके उदय से अनादेय - निष्प्रभ शरीर होता है वह अनादेय है । अथवा जिसके उदय से जीव आदेयवाच्य - मान्यवचनवाला होता है वह आदेय है और उससे विपरीत अनादेय है । (३७) जिसके उदय से स्वर शोभन - मधुर अर्थात् मनोज्ञ होता है वह सुस्वर कर्म है। (३८) जिसके उदय से अमनोज्ञ स्वर होता है वह दु:स्वर नामकर्म है । (३६) पुण्य गुणों का ख्यापन करनेवाला यशःकीर्ति नामकर्म है । अथवा जिस कर्म के उदय से विद्यमान या अविद्यमान गुणों की ख्याति होती है वह यशः कीर्ति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy