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पर्याप्त्यधिकारः []
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भोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम । बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणशरीरं यतो भवति तत्साधारणशरीरनाम । यस्य कर्मण उदयाद् रसरुधिरमेदमज्जास्थिमांसशुक्राणां सप्तधातूनां स्थिरत्वं भवति तत्स्थिरनाम । यदुदयादेतेषाम स्थिरत्वमुत्तरपरिणामो भवति तदस्थिरनाम । यदुदयादंगोपांगनामकर्मजनितानामंगानामुपगानां च रमणीयत्व तच्छुभनाम, तद्विपरीतमशुभनाम । यदुदयात्स्त्रीपुंसयोरन्योन्यप्रीतिप्रभवं सौभाग्यं भवति तत्सुभगनाम । यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतोऽप्यप्रीतिकरस्तदुभंगनाम । चशब्दो नामशब्दस्य समुच्चयार्थः । यस्य कर्मण उदयेनादेयत्वं प्रभोपेतशरीरं भवति तदादेयनाम । यदुदयादनादेयत्वं निष्प्रभशरीरं तदनादेयनाम, अथवा यदुदयादादेयवाच्यं तदादेयं विपरीतमनादेयमिति । शोभनः स्वरः मधुरस्वरः यस्योदयात्सुस्वरत्वं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं भवति तत्सुस्वरनाम । यदुदयात् दुःस्वरताऽमनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तद् दुःस्वरनाम । पुण्यगुणाख्यापनकारणं यशः कीर्तिनाम, अथवा यस्य कर्मण उदयात्सद्भूतानामसद्भूतानां च ख्यापनं
(२७) शरीर नामकर्म के उदय से रचा हुआ और एक आत्मा के लिए उपभोग का कारण शरीर जिससे होता है वह प्रत्येकशरीर नामकर्म है ।
(२८) अनेक आत्माओं के लिए उपभोगहेतुक शरीर जिससे होता है वह साधारणशरीर नामकर्म ह ।
(२९) जिस कर्म के उदय से रस, रुधिर, मेद, मज्जा, हड्डी, मांस और शुक्र इन सात धातुओं की स्थिरता होती है वह स्थिर नामकर्म है ।
(३०) जिस कर्म के उदय से इन धातुओं में उत्तरोत्तर अस्थिररूप परिणमन होता जाता है वह अस्थिर नामकर्म है ।
(३१) जिसके उदय से अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न हुए अंगों और उपांगों में रमणीयता आती है वह शुभ नामकर्म है ।
(३२) इससे विपरीत को अशुभ नामकर्म कहते हैं ।
(३३) जिसके उदय से स्त्री और पुरुष में परस्पर प्रीति से उत्पन्न हुआ सौभाग्य होता है वह सुभग नामकर्म है ।
(३४) रूपादि गुणों से सहित होते हुए भी लोगों को जिसके उदय से अप्रीतिकर प्रतीत होता है उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं ।
(३५) जिस कर्म के उदय से आदेय - प्रभासहित शरीर होता है वह आदेय नाम
कर्म है ! (३६) जिसके उदय से अनादेय - निष्प्रभ शरीर होता है वह अनादेय है । अथवा जिसके उदय से जीव आदेयवाच्य - मान्यवचनवाला होता है वह आदेय है और उससे विपरीत अनादेय है ।
(३७) जिसके उदय से स्वर शोभन - मधुर अर्थात् मनोज्ञ होता है वह सुस्वर कर्म है।
(३८) जिसके उदय से अमनोज्ञ स्वर होता है वह दु:स्वर नामकर्म है ।
(३६) पुण्य गुणों का ख्यापन करनेवाला यशःकीर्ति नामकर्म है । अथवा जिस कर्म के उदय से विद्यमान या अविद्यमान गुणों की ख्याति होती है वह यशः कीर्ति है ।
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