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________________ ३७०1 [ मूलाचारे पनि नद्यगकीर्तनं नाम। तत्प्रत्यनीकमपरमयशःकीर्तिनाम, यदुदयात् सद्भूतानामसद्भूतानां चाप्यगुणानां ख्यापनं तदयश-कीतिनाम । नियतं मानं निमानं, तद् द्विविधं प्रमाणनिमानं स्थाननिमानं चेति, यस्य कर्मण उदयेन द्वे अपि निमाने भवतस्तन्लिमाननाम, अन्यथा कर्णनयननासिकादीनां स्वजातिप्रतिरूपणमात्मनः स्थानेन प्रमाणेन च नियमो न स्यात्। यस्य कर्मण उदयेन परममार्हन्त्यं त्रैलोक्यपूजाहेतुर्भवति तत्परमोत्कृष्टं तीर्थकरनाम । एवं पिण्डप्रकृतीनां द्वाचत्वारिंशन्नाम्न एकैकापेक्षया विनवतिर्वा भेदा भवन्तीति ॥१२३५-३६॥ गोत्रप्रकृतिभेदमन्तरायप्रकृतिभेदं चाह उच्चाणिच्चागोदं दाणं लाभंतराय भोगोय। परिभोगो विरियं चेव अंतरायं च पंचविहं ॥१२४०॥ (४१) इससे विपरीत अयशःकोति नामकर्म है। अर्थात् जिसके उदय से विद्यमान अथवा अविद्यमान भो दोषों को प्रसिद्धि हो जावे वह अयशःकीति नामकर्म है। (४१) नियत-निश्चित, मान-माप को निमान कहते हैं। उसके दो भेद हैंप्रमाणनिमान और स्थाननिमान । जिस कर्म के उदय से दोनों निमान होते हैं वह निमान नामकर्म है। यदि यह कर्म न हो तो आत्मा कान, नेत्र, नाक आदि अवयवों को अपनी जाति के अनुरूप स्थान का और प्रमाण का नियम न हो सकेगा। अर्थात् आकार के जितने आँख, कान आदि और जिस स्थान पर चाहिए उन्हें उतने आकार के अपने-अपने स्थान पर बनाना निमान या निर्माण नामकर्म का काम है। (४२) जिसकर्म के उदय से तीनों लोक में पूजा का हेतु परम आर्हन्त्य पद प्राप्त होता है वह परमोत्कृष्ट तीर्थकर नामकर्म है। इस प्रकार नामकर्म की ये पिण्ड प्रकृतियाँ ब्यालोस हैं और ये ही एक-एक की अपेक्षा से तिरानवे भेदरूप हो जाती हैं।। भावार्थ-पिण्डरूप प्रकृतियाँ ४२ हैं। ये ही अपिण्डरूप से अर्थात् पृथक्-पृथक् करके लेने से ६३ हो जाती हैं। यथा-गति ४, जाति ५, शरीर ५, बन्धन ५, संघात ५, संस्थान ६, संहनन ६, अंगोपांग ३, वर्ण ५, रस ५, गन्ध २, स्पर्श ८, आनुपूर्व्य ४, अगुरुलघु १, उपघात १, परघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, विहायोगति २, त्रस १, स्थावर १, सूक्ष्म १, बादर १, पर्याप्त १, अपर्याप्त १, साधारण १, प्रत्येक १, स्थिर १, शुभ १, सुभग १, आदेय १, अस्थिर १, अशुभ १, दुर्भग १, अनादेय १, दुःस्वर १, सुस्वर १, यशस्कीर्ति १, अयशस्कीति १, निर्माण १, और तीर्थकर १ ये सब मिलकर ६३ हो जाती हैं। गोत्र और अन्तराय प्रकृतियों के भेद बतलाते हैं गाथार्थ-गोत्र के उच्च गोत्र और नीचगोत्र ऐसे दो भेद हैं । अन्तराय के दान, लाभ, भोग और वीर्य ऐसे पाँच भेद हैं ।।१२४०।।* * फलटन से प्रकाशित मूलाचार में उसके पूर्व की गाथा का पूर्वार्ध मात्र है। अगली गाथा बदली हुई है। एवे पिंडापिडपयडी णिच्चुच्चयगोवं च।" अर्थ-ऊपर कथित ये नामकर्म की पिण्डप्रकृतियां हैं। इनमें भेद करने से मपिण्डप्रकृतियाँ ९३ हो जाती हैं। गोत्र के नीचत्रोत्र और उच्चगोत्र ये दो भेद हैं। (शेष बनने पृष्ठ पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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