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________________ ३६८] भूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्रयन्ति तेषामागतानां पुद्गलस्कन्धानां खलरसपर्यायः परिणमनशक्तिराहारपर्याप्ति: । सा च नान्तर्मुहूर्तमन्तरेण समयेनकेन जायते शरीरोपादानात्प्रथमस मयादारभ्यान्तर्मुहूर्तेनाहारपर्याप्तिनिष्पाद्यते । खलभागं तिलखलोपमास्थ्यादिस्थिरावयवैस्तिलतलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रादिद्वा. वयवपरिणमनशक्तिनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः, साहारपर्याप्तेः पश्चादन्तर्मुहूर्तन निष्पाद्यते । योग्यदेशस्थितरूपादिविशिष्टार्थग्रहणशक्तनिष्पत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, सापि ततः पश्चादन्तर्मुहर्तादुपजायते, न चेन्द्रियनिष्पत्ती सत्यापि तस्मिन् क्षणे बाह्यार्थविषयज्ञानमुत्पद्यते तदा तदुपकरणाभावात् । उच्छ्वासनि:सारणशक्तनिष्पत्तिरानपानपर्याप्तिरेषापि तदन्तर्मुहर्तकाले समतीते भवति । भाषावर्गणायाश्चतुर्विधभाषाकारपरिणमनशक्त: परिसमाप्तिर्भाषापर्याप्तिरेषापि पश्चादन्तर्मुहूर्तादुपजायते । मनोवर्गणाभिनिष्पन्नद्रव्यमनोवष्टम्भभेदानुभूतार्थस्मरणशक्तेरुत्पत्तिर्मन:पर्याप्तिः । एतासां प्रारम्भोऽक्रमेण जन्मसमयादारभ्य तासां सत्त्वाभ्युपगमान्निष्पत्तिस्तुपुनः क्रमेणतासामनिष्पत्तिरपर्याप्तिः । न च पर्याप्तिप्राणयोरभेदो यत आहारादिशक्तीनां निष्पत्तिः पर्याप्ति: प्राणित्येभिरात्मेति प्राणः । षडविधपर्याप्तिहेतुर्यत्कर्म तत्पर्याप्तिनास । शरीरनामकर्मोदयान्निर्वय॑मानं शरीरमेकात्मोप अवस्था को प्राप्त हुए हैं, और आत्मा के द्वारा रोके गये क्षेत्र में ही स्थित हैं, जो अमुर्तिक होकर भी इन कर्मस्कन्धों के सम्बन्ध में मूर्तिक भाव को प्राप्त हो रहा है ऐसी आत्मा का समवेतरूप से जो पुदगल स्कन्ध का एक क्षेत्रावगाहीरूप से आश्रय कर रहे हैं उन पुद्गलस्कन्धों में खल और रस पर्याय से परिणमन करने की शक्ति का नाम आहारपर्याप्ति है । वह अन्तर्मुहुर्त के बिना एक समय में ही नहीं हो सकती है, शरीरग्रहण के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल में वह पूर्ण होती है। आहारपर्याप्ति में जो पुद्गल खल और रस रूप हुए हैं उनमें से खल भाग को तो तिल को खत्री के समान हड्डी आदि स्थिर अवयवरूप से एवं रस भाग को तिल के तेल के समान रस, रुधिर, मज्जा, वीर्य आदि द्रव अवयव पदार्थरूप से परिणमन कराने की शक्ति की सामर्थ्य का होना शरीरपर्याप्ति है । वह आहारपर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में निष्पन्न होती है। योग्य देश में स्थित जो रूप आदि से विशिष्टि पदार्थ हैं उनको ग्रहण करने की शक्ति का निष्पन्न होना इन्द्रियपर्याप्ति है। यह भी शरीरपर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त काल में होती है । इन्द्रियों की निष्पत्ति हो जाने पर भी उसी क्षण में बाह्य पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उस समय उनके उपकरणों का अभाव है। उच्छवास निकलने की शक्ति की पूर्णता का नाम आनपान-पर्याप्ति है। यह भी पूर्वपर्याप्ति के अन्तर्मुहुर्त काल के बाद पूर्ण होती है। भाषावर्गणाओं का प्रचार की भाषा के आकार से परिणमन करने की शक्ति की पूर्णता का होना भाषापर्याप्ति है। यह भी पूर्णपर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त से पूर्ण होती है । मनोवर्गणा द्वारा निष्पन्न हुए द्रव्यमन अवलम्बन से अनुभूत पदार्थ के स्मरण की शक्ति की उत्पत्ति मनःपर्याप्ति है। इन पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है क्योंकि जन्म के समय से लेकर ही उनका सत्त्व स्वीकार किया गया है किन्तु इनकी पूर्णता क्रम से ही होती है। इन छह प्रकार की पर्याप्तियों के लिए कारणभत कर्म को पर्याप्ति कहते हैं। (२६) इन पर्याप्तियों की पूर्णता का न होना अपर्याप्ति है। पर्याप्ति और प्राण में अभेद है ? ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आहार, शरीर आदि की शक्तियों की पूर्णता का होना पर्याप्ति है और जिनसे आत्मा जीवित रहता है (शरीर में बना रहता है) वे प्राण हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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