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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ ३६७ दर्शनात् । विहाय आकाशं विहायसि गतिविहायोगतिर्येषां कर्मस्कन्धानामुदयेन जीवस्याकाशे गमनं तद्विहायोगतिनाम, न चास्याभावो वितस्तिमात्रपादजीव प्रदेशभूमिमवगाह्य सकलजीवप्रदेशानामाकाशे गमनोपलम्भात् । तत् द्विविधं प्रशस्तविहायोगतिनामाप्रशस्तविहायोगतिभेदेन । यस्य कर्मण उदयेन सिहकुंजर हंसवृषभादीनामिव प्रशस्ता गतिर्भवति तत्प्रशस्त विहायोगतिनाम । यस्य कर्मण उदयेनोष्ट्रशृगाल मृगश्वादीनामिवाप्रशस्ता गतिर्भवति तत् प्रशस्त विहायोगतिनाम |* यस्य कर्मण उदयेन जीव: स्थावरेषूत्पद्यते तत्स्थावरमामान्यथा स्थावराणामभावः स्यात् । यस्य कर्मण उदयादन्यबाधाकरशरीरेषूत्पद्यते जीवस्तद्बादरनामान्यथाप्रतिहतशरीरा जीवाः स्युः । यस्य कर्मण उदयेन सूक्ष्मेषूत्पद्यते जीवस्तत् सूक्ष्मशरीरनिवर्तकम् । यदुदयादाहाराविषट् पर्याप्तिनिवृत्तिस्तत्पर्याप्तिनाम | तत् षड्विधं तद्यथा--- शरीरनामकर्मोदयात्पुद्गलविपाकिन आहारवर्गेणागतपुद्गलस्कन्धाः समवेतानन्तपरमाणुनिष्पादिता आत्मावष्टब्धक्षेत्रस्थाः कर्मस्कन्धसंबन्ध तो मूर्ती तथा जुगनू आदि जोवों के शरीरों में उद्योत देखा जाता है । (२०) विहायस् - आकाश में जो गति है वह विहायोगति है । जिन कर्मस्कन्धों के उदय से जीव का आकाश में गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म है। इस कर्म का भी अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि एक वितस्ति मात्र पैर में स्थित ऐसे जीव के प्रदेशों से भूमि का अवगा - हम करके सम्पूर्ण जीव प्रदेशों का आकाश में गमन देखा जाता है । अर्थात् पैर प्रायः एक विलास्त मात्र के होते हैं उनमें जो भी आत्मा के प्रदेश हैं, चलते समय वे तो भूमि का अवलम्बन लेते हैं, बाकी के शरीर के सारे प्रदेशों का तो आकाश में ही गमन रहता है। इस कर्म के दो भेद हैं- प्रशस्तविहायोगति और अप्रशस्तविहायोगति । जिस कर्म के उदय से सिंह, हाथी, हंस, बैल आदि के समान प्रशस्त गमन होता है वह प्रशस्तविहायोगति नामकर्म है । तथा जिस कर्म के उदय से ऊँट, सियार, कुत्ते आदि के समान अप्रशस्त गमन होता है वह अप्रशस्तविहायोगति मामकर्म है । (२१) जिस कर्म के उदय से जीव बसों में उत्पन्न होता है वह त्रसनामकर्म है । यदि यह कर्म न हो तो द्वीन्द्रिय आदि जीवों का अभाव हो जाय। (यह पाठ छूटा हुआ प्रतीत होता है ।) (२२) जिस कर्म के उदय से जीव स्थावर कार्यों में उत्पन्न होता है वह स्थावर नामकर्म है। यदि यह कर्म न हो तो स्थावर जीवों का अभाव ही हो जाएगा, किन्तु ऐसा है नहीं । (२३) जिसकर्म के उदय से अन्य को बाधा देनेवाले शरीरों में जीव जन्म लेता है वह बादर नामकर्म है । यदि यह कर्म न हो तो सभी जीव एक-दूसरे से बाधा रहित शरीरवाले हो जायें, किन्तु ऐसा दिखता नहीं है । (२४) जिस कर्म के उदय से जीव सूक्ष्मों में उत्पन्न होता है वह सूक्ष्म नामकर्म है । (२५) जिस कर्म के उदय से आहार आदि छह पर्याप्तियों की रचना होती वह पर्याप्ति नामकर्म है। उसके आहारपर्याप्ति आदि छह भेद हैं । पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से आहारवर्गणा रूप आये हुए पुद्गलस्कन्ध, जो कि अनन्तपरमाणु रूप होकर भी स्कन्ध * [ यस्य कर्मण उदयेन जीवः त्रसेषूत्पद्यते तत्त्रसनामान्यथा द्वीन्द्रियादिजीवानामभावः स्यात् ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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