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________________ द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः ] मरणभय उवगदे देवा वि सइंदया ण तारंति । धम्मो ताणं सरणं गदित्ति चितेहि सरणतं ॥ ६६ ॥ मरणभय उपगत उपस्थिते देवा अपि सेन्द्रा देवेन्द्रसहिताः सुरासुराः न तारयन्ति न त्रायते तस्माद्धर्मो जिनवराख्यातस्त्राणं रक्षणं शरणमाश्रयो गतिश्चेति चितय भावय शरणत्वं यस्मान्न कश्चिदन्य आश्रयः, धर्मो पुनः शरणं रक्षकोऽगतिकानां गतिरिति कृत्वा धर्मं शरणं जानीहीति ।। ६६६ ।। एकत्वस्वरूपमाह - सयणस्स परियणस्स य मज्झे एक्को रुवंतओ दुहिदो । वज्जदि मच्चुवसगदो ण जणो कोई समं एदि ॥७०० ॥ स्वजनस्य भ्रातृव्यपितृव्यादिकस्य परिजनस्य दासीदासमित्रादिकस्य च मध्ये, एकोऽसहायः, रुजात व्याधिग्रस्त दुःखितः रुदन् व्रजति मृत्युवशं गतो न जनः कश्चित् तेन सममेति गच्छति ॥७०० ॥ तथा [ ५ एक्को करेइ कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य एवं चितेहि एयत्तं ॥ ७०१ ॥ गाथार्थ - मरण भय के आ जाने पर इन्द्र सहित भी देवगण रक्षा नहीं कर सकते हैं। धर्म ही रक्षक है, शरण है और वही एक गति है इस प्रकार से अशरणपने का चिन्तवन करो ||६६६ || Jain Education International श्राचारवृत्ति -मरणभय के उपस्थित होने पर देवेन्द्र सहित सुर-असुर गण भी जीव की रक्षा नहीं कर सकते हैं । इसलिए जिनेन्द्र देव द्वारा कथित धर्म ही रक्षक है, आश्रय है और ही एक गति है ऐसा चिन्तवन करो; क्योंकि अन्य कोई भी आश्रयभूत नहीं है किन्तु यह धर्म होता है। जिनके लिए कोई भी गति नहीं है उनके लिए वही एक गति है ऐसा जानकर एक मात्र धर्म को ही शरण समझो। यह अशरण भावना हुई । एकत्व का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ - स्वजन और परिजन के मध्य रोग से पीड़ित, दुःखी, मृत्यु के वश हुआ यह एक अकेला ही जाता है, कोई भी जन इसके साथ नहीं जाता ||७००॥ आचारवृत्ति-भतीजा, चाचा आदि स्वजन हैं; दासी, दास, मित्र आदि परिजन हैं । इनके मध्य में भी यह जीव असहाय है । अकेला ही यह जीव व्याधि से पीड़ित होता है, अकेला दुःखी होता है, रोता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है । अन्य कोई भी जन इसके साथ परलोक नहीं जाता है । उसी प्रकार से और भी बताते हैं गाथार्थ - अकेला ही यह जीव कर्म करता है, एकाकी हो दीर्घ संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है-इस प्रकार से एकत्व का चिन्तवन करो ॥७०१ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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