SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ मूलाचारे अशरणस्वरूपमाह हयगयरहणरबलवाहणाणि मंतोसपाणि विज्जाओ। मच्चुभयस्स पसरणं णिगडी णोदी य गोया य ॥६९७॥ अश्वगजरथनरबलवाहनानि मंत्रौषधानि च विद्याश्च प्रज्ञप्त्यादयो मृत्युभयाद्युपस्थितान्न शरणं न त्राणं न रक्षा, निकृतिवंचना, नीतिश्चाणक्यविद्या "स्वपक्षपरपक्षवृद्धिहानिप्रतिपादनोपायो नीतिः" । सा च सामोपप्रदानभेददंडरूपा । तत्र प्रियहितवचनमंगं स्वाजन्यं च साम, नानाद्रव्यप्रदानमुपप्रदानं, त्रासनभर्त्सनादिर्भेदः, ताडनं छेदनं दंडः, निजा बांधवा भ्रात्रादयश्चवमादीनि मृत्यु भये सत्युपस्थिते शरणं न भवतीति चिन्तनीयमिति ॥६६७॥ तथा जम्मजरामरणसमाहिदह्मि सरणं ण विज्जदे लोए। जरमरणमहारिउवारणं तु जिणसासणं मुच्चा ॥६६॥ जन्मोत्पत्तिः, जरा वृद्धत्वं, मरणं मृत्युः, एतैः समाहिते संयुक्त सुष्ठु संकलिते शरणं रक्षा न विद्यते लोकेऽस्मिजगति, जरामरणमहारिपुवारणं, जिनशासनं मुक्त्वा'ऽन्यच्छरणं न विद्यते लोके इति संबंधः ।।६६८।। तथा अशरण का स्वरूप कहते हैं-- गाथार्थ-घोड़ा, हाथी, रथ, मनुष्य, बल, वाहन, मन्त्र, औषधि, विद्या, माया, नीति और बन्धुवर्ग ये मृत्यु के भय से रक्षक नहीं हैं ।।६६७॥ आचारवत्ति-मृत्यु के भय आदि के उपस्थित होने पर घोड़ा, हाथी, रथ, मनुष्य, सेना, वाहन, मन्त्र, ओषधि तथा प्रज्ञप्ति आदि नाना प्रकार की विद्याएं शरण नहीं हैं अर्थात् ये कोई भी मृत्यु से बचा नहीं सकते हैं । निकृति-वंचना अर्थात् ठगना, नीति-चाणक्यविद्या, अथवा 'स्वपक्ष की वृद्धि और परपक्ष को हानि के प्रतिपादन का उपाय नीति है।' वह नीति साम, उपप्रदान, भेद और दण्ड के भेद से चार प्रकार की है। जिसमें प्रिय हित वचन साधन है और आत्मीयता का प्रयोग होता है वह सामनीति है। नाना प्रकार के द्रव्यों का प्रदान करना उपप्रदान नीति है । त्रास देना, भर्त्सना आदि करना भेदनीति है तथा ताड़न छेदन करना दण्डनीति है। भाई-बन्धु आदि निज कहलाते हैं। इत्यादि सभो नीतियाँ व बन्धु वर्ग आदि कोई भी मृत्यु भय के आ जाने पर शरण नहीं हैं ऐसा चिन्तवन करना चाहिए। उसी प्रकार से ___ गाथार्थ-जन्म-जरा-मरण से सहित इस जगत् में जरा और मरणरूप महाशत्रु का निवारण करनेवाले ऐसे जिनशासन को छोड़कर अन्य कोई शरण नहीं है ।।६६८॥ प्राचारवृत्ति-टीका सरल है। तथा १. निज वान्धवाक २. संकुलेक ३. नान्यच्छरणं विद्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy