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| मूलाचार
एक: करोति शुभाशुभं कमें, एक एव च हिण्डते भ्रमति दीर्घसंसारे, एको जायते, एकश्च म्रियते एवं चिन्तय भावयैकत्वमिति ।।७०१ ।।
अन्यत्वस्वरूपमाह---
मादुपसणसंबंधिणो य सव्वे वि श्रत्तणो अण्णे ।
"इह लोग बंधवा ते ण य परलोगं समं र्णेति ॥ ७०२ ॥
मातृपितृस्वजनसंबंधिनः सर्वेऽपि आत्मनोऽन्ये पृथग्भूता इह लोके बांधवा किंचित्कार्यं कुर्वन्ति ते न परलोकं समं यन्ति गच्छन्ति-नामुत्र लोके बान्धवास्ते भवन्तीत्यर्थः ।। १०२ ।।
तथा
अण्णा अण्ण सोयदि मदोत्ति मम णाहोत्ति मण्णंतो ।
अत्ताणं ण दु सोयदि संसार महण्णवे बुड्डं ॥७०३॥
अन्यः कश्चिदन्यं जीव शोचयति मृतां मम नाथ इति मन्यमानः, आत्मानं न तु शोचयति संसारमहार्णवे संसारमहासमुद्रे मग्नमिति ||७०३ ||
शरीरादप्यन्यत्वमाह—
प्रणं इमं सरीरादिगं पि जं होज्ज बाहिरं दव्वं ।
णाणं दंसणमादात्ति एवं चितेहि' अण्णत्तं ॥ ७०४ ॥
श्राचारवृत्ति - यह जीव अकेला ही शुभ-अशुभ कर्म बाँधता है, अकेला ही दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है । अकेला ही जन्म और मरण करता है - इस तरह एकत्वभावना का चिन्तवन करो । यह एकत्व भावना हुई ।
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अन्यत्व का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ - माता-पिता और स्वजन सम्बन्धी लोग ये सभी आत्मा से भिन्न हैं । वे इस लोक में बांधव हैं किन्तु परलोक में तेरे साथ नहीं जाते हैं ||७०२ ||
आचारवृत्ति -ये माता-पिता बन्धुवर्ग आदि जन मेरी आत्मा से पृथक्भूत हैं । इस लोक में कुछ कार्य करते हैं किन्तु परलोक में हमारे साथ नहीं जा सकते हैं अतः ये परलोक के बान्धव नहीं हैं ।
उसी प्रकार से और भी कहते हैं
गाथार्थ - यह जो मर गया, मेरा स्वामी है ऐसा मानता हुआ अन्य जीव अन्य का शोच करता है किन्तु संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए अपने आत्मा का शोच नहीं करता है ॥७०३ ॥ • श्राचारवृत्ति - टीका सरल है ।
शरीर से भी भिन्नपना दिखाते हैं-
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गाथार्थ - यह शरीर आदि भी अन्य हैं पुनः जो बाह्य द्रव्य हैं, वे तो अन्य हैं ही। आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है इस तरह अन्यत्व का चिन्तवन करो ।।७०४ ।।
१. चिंतिज्ज क
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