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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ ३४३ आत्यन्तिकों शुद्धि दधतः सिद्धस्यैव बन्धाभावः प्रसज्येत इति द्वितीयवाक्यं योग्यान् पुद्गलान् गृह्णातीति । अर्थवाद्विभक्तिपरिणाम इति पूर्वं हेतुसम्बन्धं त्यक्त्वा षष्ठीसंबन्धमुपैति कर्मणो योग्यानिति । पुद्गलवचनं कर्मणस्तादात्म्यख्यापनार्थं तेनात्मगुणोऽदृष्टो निराकृतो भवति । संसारहेतुर्न भवति यतो गृह्णातीति हेतुहेतुमद्भावख्यापनार्थः । अतो मिथ्यादर्शनाद्या वेशादार्द्रीकृतस्यात्मनः 'सर्वयोगविशेष सूक्ष्मक क्षेत्रावगाहिनामनन्तप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्याख्यायते । यथा भाजनविशेषक्षिप्तानां विविधरसपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुद्गलानामप्यात्मनि स्थितानां योगकषायवशात्कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः, स वचनमन्यनिवृत्त्यर्थं । स एष बन्धो नान्योऽस्ति तेन गुणगुणिबन्धो निर्वर्तितो भवति । तुशब्दोऽवधार उपर्युक्त कथन से अर्थात् जीव और पुद्गल का अनादि सम्बन्ध स्वीकार कर लेने से इस आशंका का निरसन हो जाता है, कि अमूर्तिक जीव मूर्तिक कर्म से कैसे बंधता है ? क्योंकि कर्म से सहित जीव मूर्तिक भी माना गया है। जीव एकान्त से अमूर्तिक नहीं है । अतएव मूर्तिक कर्मों से बँधता रहता है । बन्ध को अनादि न मानने से क्या हानि है ? यदि बन्ध को आदिमान् स्वीकार किया जाये तब तो, जीव पहले कभी शुद्ध था किन्तु कर्मबन्ध होने पर अशुद्ध हो गया ऐसा अर्थ हो जाएगा । और तब तो आत्यन्तिक शुद्धि को धारण करते हुए सिद्ध जीवों के जैसे पुनः कभी बन्ध नहीं होता है ऐसा उनके भी नहीं होना चाहिए । परन्तु ऐसा है नहीं । अतः 'कर्म से सहित जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है' ऐसा द्वितीय वाक्य है । 'अर्थ के वश से विभक्ति बदल जाती है' इस नियम के अनुसार 'कर्मणः' शब्द पहले की पंचम्यन्त हेतु वाच्य विभक्ति को छोड़कर षष्ठी सम्बन्ध को प्राप्त कर लेता है इससे 'कर्म के योग्य' ऐसा अर्थ हो जाता है । यहाँ पर 'पुद्गल' शब्द कर्म से तादात्म्य को बतलाने के लिए है अर्थात् 'पुद्गलान्' ऐसे शब्द से यह समझना कि कर्म पौद्गलिक ही हैं, कर्मों का पुद्गल के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । इस कथन से जो अदृष्टकर्म को आत्मा का गुण मानते हैं उनका निराकरण हो जाता है । क्योंकि आत्मा का गुण कभी भी संसार का कारण नहीं हो सकता है । इसलिए 'गृह, णाति' यह क्रिया कारण और कार्य भाव को बतलाने के लिए है । अर्थात् जीव का कषाय परिणाम कारण है और पुद्गल कर्मों का आना कार्य है अतः जीव कर्मरूप परिणत न होकर कर्मरूप से परिणत पुद्गलों को ग्रहण कर लेता है। इससे जीव और कर्म का संयोग सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है । अतः मिथ्यादर्शन आदि के आवेश से आर्द्र हुए आत्मा के सर्व योग विशेष से सूक्ष्म और एक क्षेत्रावगाही, अनन्त प्रदेशरूप, कर्म भाव के योग्य पुद्गलों का निर्विभाग रूप जो संश्लेष सम्बन्ध हो जाता है वह बन्ध कहलाता है। जिस प्रकार से वर्तन विशेष में रखे गये विविध रस युक्त पुष्प और फलों का मदिरा भाव से परिणमन हो जाता है उसी प्रकार से आत्मा में स्थित पुद्गलों का भी योग और कषाय के वश से कर्मभाव से परिणमन हो जाता है, ऐसा समझना चाहिए । 'स बन्ध:' इसमें जो 'स' शब्द है वह अन्य की निवृति के लिए है अर्थात् बन्ध तो बस यही १. क सर्वयोगविशेषात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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