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________________ ३४२ ] जीव कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा । इह पोग्गलदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो ।। १२२६॥ जीवः कषाययुक्तः क्रोधादिपरिणतः योगान्मनोवाक्काय क्रियाभ्यः कर्मणो योग्यानि यानि पुद्गलद्रव्याणि गृह्णाति स बन्धः कषाययुक्त इति पुनर्हेतु निर्देशस्तीव्रमन्दमध्यमकषायानुरूपस्थित्यनुभव विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह- स्वत आत्मा कषति कर्मादत्त इति चेत् नैष दोषो जीवत्वात् जीवो 'नामप्राणधारणादायुः सम्बन्धात् न पुनरायुवि रहाज्जीवो येन आत्मना पुरतः पुद्गलानादत्ते कर्मयोग्यानिति लघुनिर्देशात्सिद्धे कर्मणो योग्यानिति पृथग्विभक्त्युच्चारणं वाक्यान्तरज्ञापनार्थं किं पुनस्तद्वाक्यान्तरमत नाह— कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकम् । वाक्यम्, एतदुक्तं भवति कर्मण इति हेतुनिर्देशः, कर्मणो हेतोर्जीवः कषायपरिणितो भवति नाकर्मकस्य कषायलेपोऽस्ति ततो जीवः कर्मणो योग्यानिति तयारेनादिसम्बन्ध इत्युक्तं भवति ततोऽमूर्तः जीवः मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यत इति बोध्यमपाकृतं भवति, इतरथा हि बन्धस्यादिमत्त्वे गाथार्थ - कषाय सहित जीव योग से कर्म के जो योग्य हैं ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करता है वह बन्ध है ऐसा जानना ।। १२२६ ॥ [ मूलाचारे आचारवृत्ति - क्रोधादि से परिणत हुआ जीव मन, वचन और काय की क्रियारूप योग से कर्मों के योग्य जो पुद्गलद्रव्य हैं उनको ग्रहण करता है अतः वह बन्ध कषाय से युक्त होता है । इस तरह से पुनः हेतु का निर्देश किया है। तीव्र, मन्द और मध्यम कषायों के अनुरूप स्थिति और अनुभाग में भेद होता है इसका ज्ञान कराने के लिए कहते हैं स्वयं आत्मा अपने को कसता है - कर्मों को ग्रहण करता है यदि ऐसा माना जाए तो इसमें कोई दोष नहीं होगा क्योंकि वह जीव है और 'जीव' यह संज्ञा प्राणों को धारण करने से और आयु के सम्बन्ध से होती है । किन्तु आयु के अभाव में जीव की यह संज्ञा सार्थक नहीं है । इसलिए यह सकषायी प्राणों का धारक संसारी जीव ही कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । 'कर्म योग्यान्' ऐसा लघु निर्देश होने से भी 'कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है' यह बात सिद्ध हो जाती । पुनः 'कर्मणः योग्यान्' ऐसा क्यों कहा, ऐसी जिज्ञासा होने पर कहा जाएगा, यहाँ पर पृथक् विभक्ति करना अर्थात् समास न करना भिन्न वाक्य को बतलाने के लिए है । वह भिन्न वाक्य क्या है, इस जिज्ञासा के समाधान में कहा जाएगा कि 'कर्म से' जीव कषायसहित होता है यह भिन्न वाक्य है । अर्थात् 'कर्मण:' इसमें हेतु अर्थ में पंचमी विभक्ति का निर्देश है । 'कर्म' हेतु से जीव कषाय से परिणत होता है और कर्म रहित जीव -के कषाय का अभाव है । और कषाय से सहित हुआ यह जीव 'कर्म के योग्य' पुद्गलों को ग्रहण करता है । यहाँ 'कर्मणः' को षष्ठी विभक्त्यन्त मानकर अर्थ किया जाता है । इस तरह यह 'कर्मणः' पद दोनों तरफ लगता है, इस बात को बतलाने के लिए ही यहाँ समास नहीं किया गया है । इससे यह भी अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि जीव और पुद्गल कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है । 1 १. क जीवनात् प्राणधारणादायुः संबन्धात् । २. क चोद्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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