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________________ पर्याधिकारः ] [ ३४१ पंचानुत्तरनवानुदिशदेवाः सम्यग्दृष्टयो निश्चयेन ज्ञातव्या भवन्ति तेभ्यः 'पुनरघो मिथ्या दृष्टयः सासादनाः सम्यङ मिध्यादृष्टयोऽसंयत सम्यग्दृष्टयो भवन्ति । तथा शेषाश्च नारकतियंङ मनुष्या मिश्रा भवन्तीति ॥। १२२४ ॥ अल्पबहुत्वं प्रतिपाद्य बन्धकारणं प्रतिपादयन्नाह - मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगास्त एव हेतवो बंधस्यायुषो भवन्ति पुनरध्यवसायः परिणामः हेतुर्भवतीति ज्ञातव्याः । पंच मिथ्यात्वानि पंचेन्द्रियाणि मनःषट्कायविराधनानि त्रयोदश योगाः षोडश कषाया नव नोकषायश्च सर्वे एते पंचपंचाशत्प्रत्ययाः कर्मबन्धस्य हेतवो बोद्धव्या भवन्ति, अन्ये भेदा अत्रैवान्तर्भवन्तीति ॥। १२२५।। मिच्छादंसणअविरदिकसायजोगा हवंति बंधस्स । श्राऊसज्भवसाणं हेदवो ते दु णायव्वा ।। १२२५॥ बन्धस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह - अचारवृत्ति- -नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर के देव निश्चय से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, ऐसा जानना । इनसे नीचे के देव मिथ्यादृष्टि सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि होते हैं । तथा शेष नारकी, तिर्यंच और मनुष्य अर्थात् मिश्र होते हैं अर्थात् इनमें यथा-योग्य जितने भी गुणस्थान हैं वे सभी पाये जाते हैं । ये केवल सम्यग्दृष्टि ही हों अथवा मिथ्यादृष्टि ही हों ऐसा नियम न होने से ही ये मिश्र कहलाते हैं । तात्पर्य यही है कि इनमें मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्दृष्टि भी हैं । अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करके अब बन्ध के कारणों को कहते हैं गाथार्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग ये बन्ध के कारण हैं । ये परिणाम आयु के भी कारण हैं ऐसा जानना ।। १२२५ ।। आचारवृत्ति - मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग ये बन्ध के कारण हैं और ये ही बन्ध के भी कारण हैं । पुनः अध्यवसाय परिणाम भी आयु के लिए हेतु है । पाँच मिथ्यात्व, पाँच इन्द्रियों और मन तथा छह कायों की विराधना ये बारह अविरति, तेरह योग, सोलह कषाय और नव नोकषाय ये पच्चीस कषाय, ये सभी पचपन प्रत्यय कर्मबन्ध के कारण हैं, ऐसा जानना । अन्य और भेद भी इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाते हैं । भावार्थ - योग पन्द्रह होते हैं किन्तु यहाँ तेरह ही लिये गये हैं, आहारक और आहारकमिश्र योग नहीं लिये हैं । अतः सत्तावन आस्रव में से दो घट जाने से पचपन रह जाते हैं । मिथ्यादृष्टि को आहारक, आहारक मिश्र न होने से ५५ प्रत्यय ही बन्ध के हैं । बन्ध के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं १. क पुनरन्येऽधो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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