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________________ ३४० ] [ मूलाचार मात्रा:, १ / ५ । ततो लांतवकापिष्ठदेवा असंख्यातगुणाः श्रेणिसप्तमवर्गमूलखंडितथ्य प्येकभागमात्राः, १/७ । ततो ब्रह्मब्रह्मोत्तरदेवा असंख्यातगुणाः श्रेणिनवमवर्गमूलगुणाः श्रेणिचतुर्थ वर्गमूलखण्डितश्रेण्येक भागमात्राः, १/४ । नवमवर्गमूलखण्डितश्रेण्येक भागमात्राः, १ / ६ । ततः सानत्कुमारमाद्देन्द्रदेवा असंख्यातगुणाः श्रेण्येकादशवर्गमूलखण्डितश्रेण्येकभागमात्राः, १ / ११ । ततः सोधर्मेशानदेवा असंख्यातगुणाः, १/१३ । शेषं पूर्ववत् द्रष्टव्यमिति । अथ वा सर्वस्तोका अयोगिनश्चत्वार उपशमकाः संख्यात संगुणाः । ततः सयोगिनः संख्यातगुणास्तश्रोता: संख्यातगुणास्ततः संयतासंयता स्तिर्यङ्क मनुष्या असंख्यागुणाः पल्योपमासंख्यात भागमात्राः, ५९९९९ । ततश्चतसृषु गतिषु सासादनसम्यदृष्टयोऽसंख्यातगुणाः ५० । ततश्चतसृषु गतिषु सम्यङ्ििमथ्यादृष्टयः संख्यापल्यं, ६० । ततश्चतसृषु गतिषु असंयत सम्यग्दृष्टयोऽसंख्यातगुणाः । एतैः सिद्धा अनंतगुणास्ततः सर्वे मिध्यादृष्टयोऽनन्तानन्तगुणाः स्युरिति ॥। १२२२-२३॥ पुनरपि देवान् गुणेन निरूपयन्नाह - अणुदिसणुत्तरवेवा सम्मादिट्ठीय होंति बोधव्या । तत्तो खलु हेट्ठिमया सम्मामिस्सा य तह सेसा ॥। १२२४ ॥ वर्गमूल से भाजित श्रेणी के एक भागमात्र हैं । इनकी दृष्टि १/५ है । लांव-कापिष्ठ के देव इनसे असंख्यातगुणे हैं । अर्थात् श्रेणी के सातवें वर्गमूल से भाजित श्रेणी के एक भागमात्र हैं, जिनकी संदृष्टि १ / ७ है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के देव उनसे असंख्यातगुणे हैं । वे श्रेणी के नव वर्गमूल से गुणित और श्र ेणी के चतुर्थ वर्गमूल से भाजित श्रेणी के एक भागमात्र हैं । उनकी दृष्टि १४ है । ये श्रेणी के नवमें वर्गमूल से भाजित श्रेणी के एक भागमात्र हैं जिनकी दृष्टि १ / ६ है । उनके असंख्यातगुणे सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देव हैं । ये श्रेणी के ग्यारहवें वर्गमूल से भाजित श्रेणी के एक भागमात्र हैं जिनकी संदृष्टि ९/११ है। उनसे असंख्यातगुणे सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देव हैं, जिनकी संदृष्टि १ / ३ है । शेष पूर्ववत् हैं । अथवा सबसे कम अयोगकेवली हैं। चारों उपशमक उन अयोगियों से संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणे सयोगकेवली हैं। इनके संख्यात गुणे अप्रमत्त मुनि हैं । इनसे असंख्यात गुणे संयतासंयत तिर्यंच और मनुष्य हैं। ये पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र हैं जिनकी संदृष्टि ५६६६६ है। इनसे असंख्यातगुणे चारों गतियों के सासादन सम्यग्दृष्टि हैं, इनकी संदृष्टि ५० है। इनसे संख्यातगुणे चारों गतियों के सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं जिनकी संदृष्टि पल्य १०. है । इनसे असंख्यातगुणे चारों गतियों से असंयत सम्यग्दृष्टि जीव हैं । इनसे अनंतगुणें सिद्ध हैं। सभी मिथ्यादृष्टि जीव इन सिद्धों से भी अनन्तानन्तगुणे हैं । पुनरपि देवों का गुणस्थान द्वारा निरूपण करते हैं गाथार्थ - अनुदिश और अनुत्तर के देव सम्यग्दृष्टि होते हैं ऐसा जानना । इनसे नीचे के देव सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनोंवाले होते हैं तथा शेष जीव भी दोनों से मिश्रित होते हैं ॥१२२४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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