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________________ पर्याप्यधिकारः] [ ३४४ गार्थः । कर्मादिसाधनो बन्धशब्दो व्याख्यात इति ॥१२२६॥ आह, किमयं बन्ध एकरूप एवाहोस्वित्प्रकारा अप्यस्य सन्तीत्युच्यते पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधो य चदुविहो होइ । दुविहो य पयडिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव ॥१२२७॥ बन्धशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः, अनुभागबन्धः, प्रदेशबन्ध इति चतुर्विधो बन्धो भवति । प्रकृतिबन्धस्तु द्विविधः मूलस्तथोत्तरो, मूलप्रकृतिबन्ध उत्तरप्रकृतिबन्धश्चेति । प्रकृति: स्वभावः निम्बस्य का प्रकृतिस्तिक्तता, गुडस्य का प्रकृतिमधुरता तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिरर्थानवगमः, दर्शनावरणस्यार्थानालोकनं, वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःखसंवेदनं, दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रवान, चारित्रमोहस्यासंयमः, आयुषो भवधारणं, नाम्नो नरकादिनामकरणं, गोत्रस्योच्चर्नीचैः स्थानसंशब्दनम्, अन्तरायस्य दानादिविघ्नकरणम् । तदेव लक्षणं कार्य प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः। तत्स्वभावाप्रच्युतिः स्थितिः, यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । तद्रसविशेषोऽनुभवः यथाऽजागोमहिष्याविक्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेषस्तथा कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेषोऽनुभवः । इयत्तावधारणं प्रदेशः कम है अन्य कुछ बन्ध नहीं है। अर्थात् जीव के कर्मपुद्गलों के साथ सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है, इस कथन से जो गुण और गुणी में बन्ध मानते हैं उनका निराकरण हो जाता है। गाथा में 'तु' शब्द अवधारण-निश्चय के लिए समझना । यहाँ कर्मादि साधनवाला बन्ध शब्द कहा गया है। यह बंध एकरूप है अथवा इसके प्रकार भी हैं, इसे ही बताते हैं गाथार्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से बन्ध चार प्रकार का होता है, और प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का है-मूलप्रकृतिबन्ध तथा उत्तरप्रकृतिबन्ध ॥१२२७॥ प्राचारवृत्ति-बन्ध शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना। प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध, इस प्रकार से बन्ध चार भेद रूप है । मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध ये प्रकृतिबन्ध के दो भेद हैं। प्रकृति स्वभाव है, जैसे नीम का स्वभाव तिक्तता-कडुवापन है और गुड़ का स्वभाव मधुरता है। वैसे ही ज्ञानावरण का स्वभाव पदार्थों का ज्ञान नहीं होने देना है । दर्शनावरण का स्वभाव पदार्थों का अवलोकन रूप दर्शन नहीं होने देना, साता-असाता रूप वेदनीय का स्वभाव है सुखदुःख का संवेदन कराना, दर्शनमोह का स्वभाव है तत्त्वार्थ का श्रद्धान नहीं होने देना, चारित्रमोह का स्वभाव है संयम नहीं होने देना । भवधारण कराना आयु का स्वभाव है। नरक आदि नाम के लिए कारण होना नामकर्म का स्वभाव है। ऊँच-नीच स्थान को कह लाना गोत्र का स्वभाव है। दान आदि में विघ्न करना अन्तराय का स्वभाव है। वही- बही लक्षण रूप कार्य जिसके द्वारा प्रकर्षरूप से किया जाता है अथवा जिससे वह ही कार्य उत्पन्न होता है वह 'प्रकृति' कहलातो है । अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध का अपने माधुर्य स्वभाव से च्युत नहीं होना उनकी स्थिति है। उनका रस विशेष अनुभव है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र, मन्द आदि भाव से रसविशेष या मधुरता होती है, वैसे ही कर्मपुद्गलों में अपने में होनेवाली सामर्थ्य विशेष का नाम अनुभव या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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