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[ मूलाचारे
मानमायालोभमिथ्यादृष्टिभव्याहार्य नाहारिणः प्रत्येकमनन्तानन्ताः । केवलज्ञानिकेवल दर्शनिनोनन्ताः । चक्षुर्दर्शनिनः स्त्रीपुंवेदिनी मनोवाग्योगि संज्ञिविभंगज्ञा नितेजोलेश्यापद्मलेश्याः प्रतरासंख्येय भागप्रमिताः । शेषाः क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यङ मिथ्यादृष्टिसंयतासंयत शुक्ललेश्याः पत्योपसासंख्येयभागप्रआहाराहारमिश्रसामायिकच्छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धि सूक्ष्म साम्पराय यथाख्यातसंयताः संख्याता
मिताः ।
भवन्तीति । ।। १२०८ ॥
कुलानि प्रतिपादयन्नाह -
वावीस सत्त तिणिय सत्त य कुलकोडि सदसहस्साइं । या पुढविदगागणिवा ऊकायाण परिसंखा ॥ १२०६॥ कोडिसदसहस्साइं सत्तट्ठ य णव य अट्ठवीसं च । वेदियतेइंदियचरिदियहरिदकायाणं ॥ १२१०॥ अद्धत्तेरस वारस दसयं कुलकोडिसदसहस्साइं । जलचर पक्खिचउप्पय उरपरिसप्पेसु णव होंति ॥ १२११ ॥ छवीसं पणवीसं चउदस कुलकोडिसदसहस्साई । सुरणेरइयणराणं जहाकमं होइ णायव्वं ॥ १२१२ ॥
एतानि गाथासूत्राणि पंचाचारे व्याख्यातानि अतो नेह पुनर्व्याख्यायन्ते पुनरुक्तत्वादिति ।।१२०९-१२॥ कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ, असंयम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यादृष्टि, भव्य, आहारी और अनाहारी ये प्रत्येक अनन्तानन्त हैं । केवलज्ञानी और केवलदर्शनी अनन्त' हैं ।
चक्षुर्दर्शनी स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, मनोयोगी, वचनयोगी, संज्ञी, विभंगज्ञानी, तेजोलेश्या, पद्मलेश्यावाले जीव प्रत्येक प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।
शेष क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक सम्यग्दृष्टि, सासादन- सम्यग्दृष्टि, सम्यग् - मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और शुक्लले श्यावाले जीव प्रत्येक पत्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। आहार, आहारमिश्र, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयत- ये सभी संख्यात होते हैं ।
कुलों का वर्णन करते हैं
गाथार्थ -- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकाय के कुलों की संख्या क्रमश: बाईस लाख करोड़, सात लाख करोड़, तीन लाख करोड़ और सात लाख करोड़ जानना । द्वीन्द्रिय, तीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और वनस्पतिकाय - इनके कुल सातकोटिलक्ष आठ कोटि लक्ष, नो कोटिलक्ष और अट्ठाईस 'कोटिलक्ष हैं। जलचरों के कुल साढ़े बारह कोटिलक्ष, पक्षियों के बारह कोटिलक्ष, चतुष्पद-पशुओं के दशकोटिलक्ष और छाती के सहारे चलनेवाले गोधा - सर्प आदि जीवों के कुल नौ कोटिलक्ष होते हैं । देव, नारकी और मनुष्य के कुल क्रम से छब्बीस करोड़ लाख, पच्चीस करोड़ लाख और बारह करोड़ लाख होते हैं ॥। १२०६-१२॥
आचारवृत्ति -- इन गाथा - सूत्रों का पंचाचार में व्याख्यान कर दिया है इसलिए यहाँ
१. केवलज्ञानी और केवलदर्शनी संख्यात हैं ऐसा अन्यत्र पाठ है । वह संसारी जीवों की अपेक्षा से है किन्तु यहाँ यह पाठ सिद्धों की अपेक्षा से है ।
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