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________________ पर्याप्त्यधिकारः] मात्राः। प्रमत्ताः पंचकोटयस्त्रिनवतिलक्षाधिका अष्टानवतिसहस्राधिकाः षडुत्तरद्विशताधिकाश्च । अप्रमत्ता द्वे कोट्यौ षण्णवतिलक्षाधिके नवनवतिसहस्राधिके शतत्र्यधिके च। चत्वार उपशमकाः प्रत्येक प्रवेशेन एको वा द्वो वा त्रयो वोत्कर्षेण चतुःपंचाशतस्वकालेन समुदिता द्वे शते नवनवत्यधिके । चत्वारः क्षपका अयोगिकेवलिनश्च प्रत्येक एको वा द्वो वा त्रयो वोत्कृष्टेनाष्टोत्तरशतं, स्वकालेन समुदिता: पंचशतान्यष्टानवत्यधिकानि, सयोगिकेवलिन अष्टशतसहस्राण्यष्टानवतिसहस्राधिकानि द्वय धिकपंचशताधिकानि च । अष्ट सिद्धसमया भवन्ति, तत्रोपशमश्रेण्यां प्रवेशेन जघन्येन केनादि कृत्वोत्कृष्टे नककसमये षोडश चतुर्विशतिस्त्रिशत् षट त्रिंशद्विचत्वारिंशदष्टचत्वारिंशच्चत:पंचाशदिति । एवं क्षपकश्रेण्यामेतदेव द्विगुणं द्वात्रिंशदष्टचत्वारिंशच्छष्टिः द्वासप्ततिश्चतुरशीतिः षण्णवतिरष्टोत्तरशतं च वेदितव्यं प्रत्येकं सिद्धसमयं प्रति । देवगतो देवा मिथ्यादृष्टयो ज्योतिष्कव्यन्तरा असंख्याता: श्रेणयः, प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः श्रेणेः संख्येयप्रमितांगुलर्भागे हृते यल्लब्धं तावन्मात्राः श्रेणयः । भवनवासिन असंख्याताः श्रेणयः, घनांगुलप्रथमवर्गमूलमात्राः । सौधर्मा देवा मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः, घनांगुलतृतीयवर्गमूलमात्राः । सनत्कुमारादिषु देवा मिथ्यादृष्टय: श्रेण्या: संख्येयभागप्रमिता, असंख्यातयोजनकोटीकोटीप्रदेशमात्राः । सर्वेष्वेतेषु सासादनसम्यङ मिथ्यादृष्ट्यसंयता: प्रत्येकं पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः। शेषाषु मार्गणासु नपुंसकमत्यज्ञानश्रुताज्ञानकाययोग्यचक्षुर्दर्शनकृष्णनीलकापोतलेश्याऽसंयमक्रोध जीव तेरह करोड़ हैं । प्रमत्त मुनि पाँच करोड़ तिरानवे लाख अट्ठानवे हज़ार दो सौ छह हैं, जब कि अप्रमत्त मुनि दो करोड़ छियानवे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन ही हैं। चारों उपशमकों में प्रत्येक प्रवेश की अपेक्षा एक, दो अथवा तीन हैं और उत्कृष्ट से चौवन हैं। ये अपने काल से समदायरूप दो सौ निन्यानवे हैं। चारोंक्षपक और अयोगकेवली-इनमें से प्रत्येक एक या दो अथवा तीन हैं, उत्कृष्ट से एक सौ आठ हैं । अपने काल से समुदायरूप ये पाँच सो अट्ठानवे हैं । सयोगकेवलो आठ लाख, अट्ठानवे हजार, पाँच सौ दो हैं। सिद्ध होने के समय आठ हैं । उसमें उपशम श्रेणी में प्रवेश की अपेक्षा जघन्य से एक से लेकर उत्कृष्ट तक एक-एक समय में क्रमशः सोलह, चौबीस, तीस, छत्तीस, बयालीस, अड़तालीस ,चौवन और चौवन हैं। इसी तरह क्षपकश्रेणी में यह संख्या दुगुनी है अर्थात् बत्तीस, अड़तालीस, साठ, बहत्तर, चौरासी, छ्यानवें, एस सौ आठ और एक सौ आठ, ये संख्याएँ प्रत्येक सिद्धसमय के प्रति जानना चाहिए। देवगति में ज्योतिषी और व्यन्तर मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं अर्थात प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। श्रेणी में संख्यात प्रमिति अंगुल का भाग देने पर जो लब्ध आये उतने मात्र असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं ये । भवनवासी देव असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं अर्थात घनांगुल के प्रथम-वर्गमूलमात्र हैं। सौधर्म स्वर्ग के मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं, अर्थात् धनांगुल के तृतीय वर्गमूलमात्र हैं। सानत्कुमार आदि स्वर्गों में मिथ्यादृष्टि देव श्रेणी के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं अर्थात् असंख्यात कोटाकोटि योजन के जितने प्रदेश हैं उतने मात्र हैं। इन सभी में सासादन, सम्यङ मिथ्यादृष्टि और असंयत देव-ये प्रत्येक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शेष मार्गणाओं में नपुंसकवेद, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, काययोग, अचक्षुर्दर्शन, १.क असंख्यातयोजनकोटीकोटीप्रदेशमात्रा। २. इसमें आठवें समय की संख्या का स्पष्टीकरण नहीं है किन्तु गोम्मटमार जीवकाण्ड में (गाथा ६२७, ६२८) में उपशम श्रेणी में आठवें समय में ५४ और क्षपक श्रेणी में आठवें समय में १०८ संख्या है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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