________________
प्यधिकारः ]
अल्पबहुत्वं प्रतिपादयन्नाह -
म सगदी थोवा तेहिं असंखिज्जसंगुणा णिरये । तेहि असं खिज्जगुणा देवगदीए हवे जीवा ॥ १२१३॥
मनुष्यगतो सर्वस्तोका मनुष्या श्रेण्यसंख्येयभागमात्रा:, १३ ( ? ) । तेभ्यो मनुष्येभ्योऽसंख्यातगुणाः श्रेणयः, १२ ( ? ) । नरकगतो नारकाः तेभ्यश्च नारकेभ्यो देवगतो देवा असंख्यातगुणाः प्रतरासंख्येयभागमात्राः, ४६ (१) । इति ।। १२१३॥
1
तथा
तेहितो हितो
तगुणा सिद्धिगदीए भवंति भवरहिया । तगुणा तिरयगदीए किलेसंता ॥ १२१४॥
तेभ्यो देवेभ्यः सकाशात्सिद्धिगतो भव रहिताः सिद्धा अनन्तगुणास्तेभ्यः सिद्धेभ्यस्तिर्यग्गतो तियंचः क्लिश्यन्तोऽनन्तगुणाः ॥ १२१४॥
सामान्येनाल्पबहुत्वं प्रतिपाद्य विशेषेण प्रतिपादयन्नाह -
पुनः उनका व्याख्यान नहीं करते हैं अन्यथा पुनरुक्त दोष हो जाएगा। अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करते हैं—
गाथार्थ - मनुष्यगति में सबसे कम जीव हैं । नरक में उनसे असंख्यात गुणे हैं और देवगति में उनसे भी असंख्यात गुणे जीव हैं ।। १२१३॥*
Jain Education International
[ ३३५
आचारवृत्ति - मनुष्यगति में सबसे कम जीव अर्थात् मनुष्य हैं । वे जगच्छ्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र हैं जिसकी संदृष्टि १३ ( ? ) है । मनुष्यों से असंख्यातगुणे जगच्छ्रेणी प्रमाण नाक हैं जिसकी संदृष्टि १२ ( ? ) है । देवगति में जीवनारकियों से असंख्यातगुणे हैं, अर्थात् वे प्रतर के असंख्यातवें भागमात्र हैं जिनकी संदृष्टि ४९ (?) है, ऐसा समझना ।
आगे और कहते हैं
गाथार्थ - सिद्ध गति में भवरहित जीव देवों से अनन्तगुणे हैं और तियंचगति में क्लेशित होते हुए जीव उनसे भी अनन्तगुणे हैं ॥ १२१४॥
आचारवृत्ति - सिद्धगति में भवरहित सिद्ध जीव उन देवों से अनन्तगुणे अधिक हैं । तिर्यंचगति में क्लेश को भोगते हुए तिर्यंच जीव उन सिद्धों से भी अनन्तगुणे अधिक हैं । सामान्य से अल्पबहुत्व को कहकर अब उसका विस्तार कहते हैं
१. क सिद्धेभ्य अपेक्ष्य ।
* फलटन से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा अधिक है
एयाय कोडिकोडी सत्ताणउदी य सदसहस्साइं ।
पण कोडसहस्सा सव्वंगीणं कुलाणं तु ।।
अर्थ – सम्पूर्ण जीवों के कुलों की संख्या एक कोड़ाकोड़ी, सत्तानवे लाख, पचास हजार करोड़ है अर्थात् सम्पूर्ण कुलों की संख्या एक करोड़, सत्तानवे लाख पचास हजार को एक करोड़ से गुणा करने प जितनी आए उतनी (१६७५००००००००००० ) है । भिन्न-भिन्न शरीर की उत्पत्ति के लिए कारणभूत नोकवर्गणाओं के भेदों को कुल कहा जाता है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org