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________________ ३२० 1 एवं चतुर्दश मार्गणास्थानानि प्रतिपाद्य तत्र जीवगुणस्थानानि निरूपयन्नाह जीवाणं खलु ठाणाणि जाणि गुणसण्णिदाणि ठाणाणि । एदे मग्गठाणेसु चेव परिमग्गदव्वाणि ॥ १२००॥ जीवानां यानि स्थानानि गुणसंज्ञकानि च यानि स्थानानि तान्येतानि मार्गणास्थानेषु नान्येषु स्फुटं मार्गे कथयितव्यानि यथासम्भवं द्रष्टव्यानीत्यर्थः ॥ १२०० ॥ तदेव दर्शयन्नाह - तिरियगदीए चोट्स हवंति सेसाणु जाण दो दो दु । मग्गणठाणस्सेदं णेयाणि समासठाणाणि ॥ १२०१ ॥ [ मूलाधारे इस तरह चौदह मार्गणास्थानों का प्रतिपादन करके उनमें जीवसमास और गुणस्थानों को निरूपित करते हुए कहते हैं - गाथार्थ - जीवों के जो स्थान हैं और जो गुण नामक स्थान - गुणस्थान हैं उनको मार्गणास्थानों में लगाना चाहिए ।। १२०० ॥ आचारवृत्ति - जीवस्थान - अर्थात् जीवसमासों को और गुणस्थानों को मार्गणाओं जो जहाँ सम्भव हैं उन्हें वहाँ घटित करना चाहिए । उसी को दिखाते हैं गाथार्थ - तियंचगति में चौदह जीवसमास होते हैं। शेष गतियों में दो-दो हैं ऐसा जानो । मार्गणास्थानों में इन समासस्थानों को जानना चाहिए ।। १२०१ ॥ * * फलटन से प्रकाशित मूलाचार में इस गाथा के उत्तरार्ध में अन्तर है, तथा सभी मार्गणाओं में जीवसमासों को बताने के लिए पृथक, ११ गाथाएं और हैं तिरियगदीए चोदस हवंति सेसासु जाण दो दो दु । एइदिएसु चउरो दो दो विगलदिएस हवे ।। अर्थ - तिर्यंच गति में चौदह जीवसमास होते हैं, शेष तीनों गतियों में दो-दो होते हैं ऐसा जानो । एकेन्द्रियों में चार जीवसमास होते हैं एवं विकलेन्द्रियों में भी प्रत्येक के दो-दो जीवसमास होते हैं । पंचिदिएस चत्तारि होंति काये तहा पुढवि आदीसु । Jain Education International दस तसकाये भणिया मण जोगे जाण एक्केक्कं ॥ अर्थ – पंचेन्द्रिय में चार जीवसमास हैं । तथा कायमार्गणा में पृथिवी आदि, पाँच स्थावर काय में चार जीवसमास हैं एवं त्रसकाय में दस जीवसमास होते हैं। योग मार्गणा में मनोयोग में प्रत्येक में एकएक जीवसमास है । तिरहं वचिजोगाणं एक्क्कं सच्च मोस वाज्जित्ता । तस्य पंचम भणिया पज्जत्ता जिनवरि देहि ॥ अर्थ — असत्य — मृषा को छोड़कर तीन वचन योग में प्रत्येक में एक-एक जीवसमास है तथा असत्यमृषा नाम अनुभव वचनयोग में पाँच पर्याप्तक जीवसमास होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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