SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्याप्स्यधिकारः] [ ३२१ तिरश्चां गतिस्तिर्यग्गतिस्तस्यां तिर्यगती जीवसमासस्थानानि चतुर्दशैवापि भवन्ति सर्वेषामेकेन्द्रियबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तपंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तानां संभवात् । प्राचारवृत्ति-तिर्यंचगति में चौदह ही जीवसमास होते हैं। अर्थात् एकेन्द्रिय के बादर-सूक्ष्म और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय के पर्याप्तअपर्याप्त, पंचेन्द्रिय सैनी-असैनी पर्याप्त-अपर्याप्त के चौदह ही जीवसमासस्थान संभव हैं। शेष-नरकगति, मनुष्यगति और देवगति में संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो-दो जीवसमास ओरालियस्स सत्त या पज्जत्ता इयर अट्ठ मिस्सस्स । बेउव्विय मिस्सस्स य पत्त यं जाण एक्केक्कं । अर्थ-औदारिक काय योग में सात पर्याप्तक जीवसमास हैं, औदारिक मिश्र में सातों अपर्याप्त और एक संज्ञी पर्याप्त ये आठ हैं, वैक्रियिक में और वैक्रियिकमिश्र में एक-एक जीवसमास हैं । आहारदुगस्सेगं कम्मइए अट्ठ अपरिपुण्णा दु । थीपुरिसेस य चउरो गqसगे चोवसा भणिया ॥ अर्थ आहारक और आहारकमिश्र में एक जीवसमास है, कार्मण काययोग में सात अपर्याप्त और एक पर्याप्त ये आठ जीवसमास हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेद में चार-चार तथा नपुंसक वेद में चौदह ही जीवसमास हैं। चोद्दस कसायमग्गे मदिसुवअवधिम्हि जाण दो वो दु। मणपज्जयम्हि एक्कं एक्कदुगे केवले जाणे ॥ अर्थ-कषायमार्गणा में चौदह जीवसमास होते हैं जबकि मति, श्रुत, अवधि में दो-दो, मनःपर्ययज्ञान में एक और केवलज्ञान में एक संज्ञी पर्याप्त है तथा समुद्घात में एक संज्ञी अपर्याप्त है। मविमण्णाणे चोद्दस सुदम्हि तह एक्क वोहिविवरीदो। सामायियादि एक्कं भसंजमे चोदसा होति ।। अर्थ-मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान में चौदह जीवसमास, कुअवधि में एक, सामायिक आदि पांचों संयमों में एक, संयमासंयम में एक और असंयम में चौदह जीवसमास हैं। चक्खुम्हि वंसणम्हि य तिय छा वा चोहसा अचक्खुम्हि । ओधिम्हि दोणि भणिया एक्कं वा दोणि केवलगे ॥ अर्थ-चक्षुर्दर्शन में तीन अथवा छह जीवसमास हैं अर्थात अपर्याप्त की अपेक्षा से भी तीन होने से छह हैं, यद्यपि अपर्याप्त अवस्था में चक्षुदर्शन लब्धिरूप है, उपयोगरूप नहीं है। अचक्षुर्दर्शन में चौदह हैं, अवधिदर्शन में एक है और केवलदर्शन में एक अथवा दो हैं। किण्हादीणं चोद्दस तेउस्स या दोण्णि होति विण्णेया । पउमसक्केस दो वो चोहस भब्वे अभब्वे या॥ अर्थ-कृष्ण, नील, कापोत में चौदह-चौदह, पीत में दो पद्म और शुक्ल में दो-दो तथा भव्य-अभव्य में चौदह जीवसमास हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy