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पर्याप्त्यधिकारः]
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आत्मार्थोपलंभक वा तत्पंचविधं मतिश्रतावधिमनःपर्ययकेवलभेदेनायथार्थोपलंभकर्मजातं तत त्रिविधं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंगज्ञानभेदेन । व्रतसमितिकवायदण्डेन्द्रियाणां रक्षणपालनानिग्रहत्यागजयः संयमः, सः सप्तविधः सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातभेदेन असंयमः संयमासंयमश्च । प्रकाशवृत्तिदर्शनं, तच्चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदेन चतुर्विधम् । आत्मप्रवृत्तिसंश्लेषकरी लेश्या, कषायानुरंजिता योगप्रवत्तिर्वा, सा च षड़विधा कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्ललेश्याभेदेन । निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः सम्यग्दर्शनादिग्रहणयोग्यस्तद्विपरीतोऽभव्योऽनाद्यनिधनकर्मबन्धः । तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं वा तत्क्षायिकक्षायोपशमिकोशमिक भेदेन त्रिविधं, मिथ्यात्वसासादनसम्यङिमथ्यात्वभेदेन च तद्विपरीतं त्रिविधं । शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राहिक: संज्ञी तद्विपरीतोऽसंज्ञी । शरीरप्रायोग्यपुद्गलपिंडग्रहणमाहारः स विद्यते यस्य स आहारी तद्विपरीतोऽनाहारी । अत्र सर्वोपि विभक्तिनिर्देश: प्रथमाविभक्त्यर्थे द्रष्टव्योऽथवा प्राकृतबलादेकारादयश्च शब्दः सर्वविशेषसंग्रहार्थः समुच्चयार्थो वा ॥११६६।।
और पर पदार्थ को उपलब्ध करनेवाला है वह ज्ञान है । उसके पाँच भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । वस्तु के विपरीत स्वरूप को बतानेवाला अज्ञान है। वह मति-अज्ञान, श्रत-अज्ञान और विभंगज्ञान की अपेक्षा तीन भेदरूप है।
८. संयम -व्रतों का रक्षण, समिति का पालन, कषायों का निग्रह, दण्ड-मन-वचन काय की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग और इन्द्रियों का जय करना यह संयम है। इसके सात भेद हैसामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पांच तो संयम हैं तथा असंयम और संयमासंयम ये सब मिलकर सात होते हैं ।
६. दर्शन-प्रकाशवृत्ति का नाम दर्शन है अर्थात् सामान्य विशेषात्मक चित्-स्वरूप आत्मा को प्रकाशित करनेवाला दर्शन है । उसके चार भेद हैं-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
१०. लेश्या-आत्मा की प्रवृत्ति में संश्लेष या बन्ध को कराने वाली लेश्या है। अथवा कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है । उसके छह भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ।
११. भव्य-निर्वाण को प्राप्त करानेवाले सम्यग्दर्शन आदि को जो ग्रहण करने के योग्य हैं वे भव्य हैं। उससे विपरीत जीव अभव्य हैं जिनका कर्मबन्ध अनादि-अनन्त है।
१२. सम्यक्त्व-तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है । अथवा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य से अभिव्यक्ति लक्षणवाला सम्यक्त्व है। उसके क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक ये तीन भेद हैं । तथा इसके विपरीत मिथ्यात्व, सासादन और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद हैं।
१३. संज्ञी-शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप आदि को जो ग्रहण कर लेते हैं वे संज्ञी हैं। उनसे विपरीत जीव असंज्ञी हैं।
१४. आहार-शरीर के योग्य पुद्गल पिण्ड का ग्रहण करना आहार है। यह आहार जिनके है वे आहारी-आहारक कहलाते हैं और उनसे विपरीत अनाहारी-अनाहारक होते हैं।
__ यहाँ पर गाथा में जो भी विभक्ति का निर्देश है वह प्रथमा विभक्ति के अर्थ में लेना चाहिए। अथवा प्राकृत व्याकरण के अनुसार एकार आदि तथा 'च' शब्द सर्वविशेष के संग्रह करने के लिए या समुच्चय के लिए है।
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