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[ मूलाचारं
प्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतचक्षुरादिसंस्थानो नाम कर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गुलः स बाह्य निर्व. त्तिः; उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणं येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणं, तदपि द्विविधं, बाह्याभ्यन्तरभेदात्, तत्र अभ्यन्तरं कृष्णशुक्ल मण्डलादिकं, बाह्य अक्षिपक्ष्मपत्रद्वयादिः इन्द्रियनिवृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिर्यत्संनिधानादात्मा द्रव्येन्द्रियं प्रति व्याप्रियते, तन्निमित्तं प्रतीत्योत्पद्यमान आत्मनः परिणाम उपयोगः कार्ये कारणोपचारात्; तदिन्द्रियं पंचविधं 'स्पर्शनादिभेदेन तानि विद्यन्ते येषां ते एकेन्द्रियादयः । आत्मवृत्त्युपचितपुद् गलपिड : कायः, पृथिवीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा सः, पृथिवीकायादिभेदेन षड्विधः । आत्मप्रवृत्तिसंकोचविकोचो योग: मनोवाक्कायावष्टंभबलेन जीवप्रदेशपरिस्पन्दो वा योग:, सः पंचदशभेदो मनोवचनकायश्चतुश्चतुःसप्तभेदेन । आत्मप्रवृत्तिमैथुन संमोहोत्पादो वेदः स्त्रीनपुंसकभेदेन' त्रिविधः । 'क्रोधादिपरिणामवशेन कर्षतीति कषायाः क्रोधमानमायालोभभेदेन चतुःप्रकाराः । भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम्
में इन्दिय नाम को प्राप्त, प्रतिनियत चक्षु आदि आकार रूप तथा नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई अवस्था विशेष से युक्त जो पुद्गल प्रकट होते हैं वह बाह्य निर्वत्ति है। जिसके द्वारा निर्व. त्ति का उपकार किया जाता है वह उपकरण है, उसके भी दो भेद है - बाह्य और आभ्यन्तर । नेत्र के कृष्ण- शुक्ल मण्डल आदि आभ्यन्तर उपकरण हैं और पलक आदि बाह्य उपकरण हैं ।
इन्द्रियों की रचना के लिए आत्मा में जो क्षयोपशम विशेष होता है उसे लब्धि कहते हैं। उसके सन्निधान से ही आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के प्रति व्यापार करता है । क्षयोपशम के निमित्त की अपेक्षा करके उत्पन्न होनेवाला आत्मा का परिणाम उपयोग कहलाता है । यहाँ कार्य में कारण का उपचार करके ऐसा कहा है । ये इन्द्रियाँ स्पर्शन आदि के भेद से पाँच प्रकार की हैं । ये जिनके पायी जावें वे एकेन्द्रिय आदि जीव हैं । इन्द्रिय मार्गणा के द्वारा इन जीवों का ही वर्णन किया जाता है ।
३. काय - आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए पुद्गल पिण्ड का नाम काय है । अथवा पृथिवीकाय आदि नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुए परिणाम को काय कहते हैं । उसके पृथिवीकाय आदि के भेद से छह प्रकार होते हैं ।
४. योग - आत्मा की प्रवृत्ति से जो संकोच - विकोच विस्तार होता है वह योग है । अथवा मन, वचन, काय के अवलम्बन से जो जीव के प्रदेशों का परिस्पन्दन होता है वह योग है । उसके पन्द्रह भेद हैं- मनोयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात, ऐसे पन्द्रह भेद होते हैं ।
५. वेद - आत्मा की प्रवृत्ति -चैतन्य पर्याय में मैथुन के संमोह को उत्पन्न करनेवाला वेद है। उसके तीन भेद हैं-- स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद ।
६. कषाय - जो क्रोध आदि परिणामों के वश से आत्मा को कसती हैं वे कषायें हैं । उनके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद होते हैं ।
७. ज्ञान - वस्तु के यथार्थस्वरूप को प्रकाशित करनेवाला ज्ञान है । अथवा जो स्व
३. क सुखदु:खस बहुलस्य कर्मक्षेत्रं कृषतीति कषायः
१. क चक्षुरादिभेदेन २ क नपुंसकत्वेन भेदेन धमानमाया लोभभेदेन चतुः प्रकारः ।
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