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________________ पर्याप्यधिकारः] । ३१७ निष्ठिता निष्पन्ना निराकृताशेषकर्माणोः बाह्यार्थनिरपेक्षानन्तानुपमसहजाप्रतिपक्षसुखा निःशेषगुणनिधानाश्चरमदेहात् किचिन्यूनस्वदेहा: कोशविनिर्गतसायकोषमा लोकशिखरवासिनः ॥११६७-६८॥ चतुर्दश गुणस्थानानि प्रतिपात मार्गणास्थानानि निरूपयन्नाह गइ ईदिये च काये जोगे वेदे कसाय णाणे य। संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे॥११६६॥ गम्यत इति गतिः गतिकर्मोदयापादितचेष्टा, भवाद्भवांतरसक्रांतिर्वा गतिः; सा चतुर्विधा नरकगतितिर्यग्गतिमनष्यगतिदेवगतिभेदेन । स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणि, अथवा इन्द्र आत्मा तस्य लिंगमिन्द्रिय 'दष्टमिति चेन्द्रियं ; तद्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं चेति, निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियं, कर्मणा या निर्वय॑ते सा निर्वत्तिः, मापि द्विविधा बाह्याभ्यन्तरभेदेन, तत्र लोकप्रमितविशुद्धात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियस्थानेनावस्थिताना मुत्सेधांगुलस्यासंख्ययभागप्रमितानां वृत्तिरभ्यन्तरा निवृत्तिरात्म स्थानों का संक्षिप्त स्वरूप कहा है। अब इन गुणस्थानों से परे जो सिद्ध भगवान् हैं उनका स्वरूप कहते हैं। गाथा में 'च' शब्द है उससे सिद्धों का ग्रहण होता है। वे सिद्धपरमेष्ठी निष्ठित, निष्पन्न-परिपूर्ण कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। उन्होंने अशेष कर्मों का नाश कर दिया है, घे बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से रहित अनन्त, अनुपम, सहज, प्रतिपक्ष रहित सुखस्वरूप हैं और सकलगणों के निधान हैं, चरमशरीर से किंचित् न्युन अपने शरीरप्रमाण हैं, म्यान से निकली हुई तलवार के समान शरीर से निकलकर अशरीरी हो चुके हैं और लोक के शिखर पर विराजमान हो गये हैं। चौहद गुणस्थानों का प्रतिपादन करके मार्गणास्थानों को कहते हैं गाथार्थ- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं ।।११६६।। आचारवृत्ति-गति आदि चौदह मार्गणाओं का वर्णन करते हैं १. गति 'गम्यते इति गतिः गमन किये जाने का नाम गति है। गति नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई चेष्टा अथवा भव से भवान्तर में संक्रमण होना गति है। उसके चार भेद हैंनरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति । २. इन्द्रिय-जो अपने-अपने विषय में तत्पर हैं वे इन्द्रियाँ हैं । अथवा इन्द्र नाम आत्मा का है उसके लिंग-चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। या इन्द्र (नामकर्म) के द्वारा बनायी गयी होने से इन्द्रिय संज्ञा है । इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के निर्वत्ति और उपकरण ये दो भेद हैं । तथा भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग ये दो भेद हैं। कर्म के द्वारा जो बनायी जाती है उसका नाम निर्व त्ति है। वह भी बाह्य-अभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। लोकप्रमाण विशुद्ध आत्मा के प्रदेशों में से उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आत्मप्रदेशों का प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रिय के आकार का हो जाना अभ्यन्तर निर्व त्ति है। और उनआत्मप्रदेशों १. क जुष्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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