SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६] [ मूलाचार क्षपकः क्षपकस्य क्षायिको गुणः, औपशमिकस्य क्षायिको गुण, उपशमकस्य क्षायिक औपशमिकश्च काश्चिच्च प्रकृतीः क्षपयति क्षपयिष्यति क्षपिताश्चैव क्षायिकः, काश्चिदुपशमयति उपशमयिष्यति उपशमिताश्चेति औप शमिकः । मोहशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, उपशांतो मोहो येषां ते उपशांतमोहा तैः सहचरितो गुण उपशान्तमोह उपशमिताशेषकषायत्वादोपशमिकः । क्षीणो विनष्टो मोहो येषां ते क्षीणमोहास्तैः सहचरितो गुणः क्षीणमोहः द्रव्यभाववैविध्यादुभयात्मकस्य मोहनीयस्य निरन्वयविनाशात्क्षायिकगुणा एते सर्वेऽपि छमस्थाः। केवलंकेवलज्ञानं तद्विद्यते येषां ते केवलिनः, सह योगेन वर्तन्त इति सयोगा: सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिनस्तैः सह चरितो गुणः सयोगकेवली, क्षपिताशेषघातिकर्मकत्वान निःशक्तीकृतवेदनीयकर्मकत्वान नष्टाष्टकर्मावयवकत्वात क्षायिकगुणः केवलिजिनशब्द उत्तरत्राप्यभिसंबध्यते काकाक्षितारकबत् । न विद्यते योगो मनोवचः कायपरिस्पंदो द्रव्यभावरूपो येषां तेऽयोगिनस्ते च ते केवलिजिनाश्चायोगिकेवलिजिनास्तैः सहचरितो गुणोऽयोगकेवलिनः क्षीणाशेषधातिकर्मकत्वान् निरस्यमानाघातिकर्मकत्वाच्च क्षायिको गुणः। च शब्दात् सिद्धा लाते हैं उनसे सहचरित गुणस्थान सूक्ष्मसांपराय है, वह भी दो प्रकार का है, उपशमक और क्षपक। सम्यक्त्व की अपेक्षा से क्षपक होते हैं। क्षपक के क्षायिक गुण है । औपशमिक के भी क्षायिक गुण है तथा उपशमक के क्षायिक और औपशमिक दोनों भाव हैं। जो किन्हीं प्रकृतियों का क्षय कर रहे हैं, किन्हीं का करेंगे और किन्हीं का कर चुके हैं वे क्षायिक भाववाले क्षपक हैं। तथा जो किन्हीं प्रकृतियों का उपशम कर रहें हैं, किन्हीं का आगे करेंगे और किन्हीं का उपशम कर चुके हैं उनके औपशमिक भाव है। ११. उपशान्तमोह-यहाँ उपशान्त के साथ मोह शब्द लगा लेना चाहिए। इससे, उपशान्त हो गया है मोह जिनका वे उपशान्तमोह हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान भी उपशान्तमोह कहलाता है । जिन्होंने अखिल कषायों का उपशमन कर दिया है वे औपशमिक भाववाले हैं। १२. क्षीणमोह-क्षीण अर्थात् विनष्ट हो गया है मोह जिनका वे क्षीणमोह हैं, उनसे सहचरित गुणस्थान भी क्षीणमोह होता है । द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का जडमूल से विनाश हो जाने से यहाँ पर क्षायिक भाव होते हैं । यहाँ तक के सभी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। १३. सयोगकेवली--केवलज्ञान जिनके पाया जाए वे केवली हैं और जो योग के साथ रहते हैं वे सयोगकेवली जिन हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान सयोगकेवली है। यहाँ सम्पूर्ण घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, वेदनीय कर्म की फल देने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी है तथा आठों कर्मों के अवयवरूप अन्य उत्तरप्रकृतियों का भी विनाश हो चुका है। यहाँ पर भी क्षायिक भाव हैं। काकाक्षितारक न्याय से 'केवलिजिन' शब्द को आगे के गुणस्थान के साथ भी लगा लेना चाहिए। १४. अयोगकेवली-जिनके मन, वचन और काय के निमित्ति से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दात्मक द्रव्य-भावरूप योग नहीं है वे अयोगी हैं, केवलज्ञान सहित वे अयोगी अयोगकेवलिजिन कहलाते हैं। उनसे सहचरित गुणस्थान भी अयोगकेवलि जिन कहलाता है । यहाँ पर घातिकर्म का तो नाश हो ही चुका है किन्तु सम्पूर्ण अघाति कर्म भी क्षीण हो रहे हैं। वेदनीय भी निःशामिक है इसलिए यह भी क्षायिक भावरूप है। अर्थात् ये अयोगकेवली बहुत ही अल्प काल में सर्वकर्मों का निर्मूलन करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त होनेवाले होते हैं। यहाँ तक चौदह गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy