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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ ३१५ क्षायोपशमिकः संयम निबन्धनः सम्यक्त्वापेक्षया क्षायोपशमिकगुणनिबन्धनः प्रमत्तसंयतः । पूर्वोक्तलक्षणेन प्रमत्तसंयता, अप्रमत्तसंयताः पंचदशप्रमादरहिताः, एषोऽपि क्षायोपशमिकगुणः प्रत्याख्यानावरणस्य कर्मणः सर्वघातिस्पर्द्धकानाम् उदयक्षयात् तेषामेव सतां पूर्ववदुपशमात्संज्वलनोदयाच्च । प्रत्याख्यानोत्पत्तेः आदिदीपकत्वाच्छेषाणां सर्वेषामप्रमत्तत्वम् । करणाः परिणामा, न पूर्वा अपूर्वा, अपूर्वा : करणा यस्यासी अपूर्वकरणः, स द्विविधः उपशमकः, क्षपकः, कर्मणामुपशमनक्षपणनिबन्धनत्वात्, क्षपकस्य क्षायिको गुणः, उपशमकस्य क्षायिक औपशमिकश्च दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्या रोहणानुपपत्तेर्दर्शनमोहनीयक्षयोपशमाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलंभाच्च । समानसमयस्थितजीव परिणामानां निर्भेदेन वृत्तिरथवा निवृत्तिर्व्यावृत्तिर्न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयस्तैः सह चरितो गुणोऽनिवृत्तिर्गुणः बादरसाम्परायः, सोऽपि द्विविधः उपशमकः क्षपकः काश्चित्प्रकृतीरुपशमयति काश्चिदुपरिष्टादुपशमयिष्यतीति ओपशमिकोऽयं गुणः, काश्चित्प्रकृतीः क्षपयति काश्चित् क्षपयिष्यतीति क्षायिकोऽयं गुणः, औपशमिकश्च क्षायिकः क्षायोपशमिकश्च । सूक्ष्मः साम्परायः कषायो येषां ते सूक्ष्मसाम्परायास्तैः सहचरितो गुणोऽपि सूक्ष्मसाम्परायः सद्विविधः उपशमकः क्षपकः; सम्यक्त्वापेक्षया सम्यक्त्व की अपेक्षा से भी क्षायोपशमिक है । अर्थात् यहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी पाया जाता है तथा चारित्र तो क्षायोपशमिक है ही अतः यह गुणस्थान क्षायोपशमिक भावरूप है । ७. अप्रमत्तसंयत - पूर्वोक्त लक्षण से रहित प्रमत्तसंयत ही अप्रमत्तसंयत कहलाते हैं । ये पन्द्रह प्रमाद से रहित होते हैं। यह गुणस्थान भी क्षायोपशमिकभावरूप है । यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्शकों का उदयाभावलक्षण क्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन कषाय का उदय होने से यह गुणस्थान होता है इसलिए इसमें प्रत्याख्यान -- त्याग अर्थात् संयम की उत्पत्ति होती है । यहाँ 'अप्रमत्त' शब्द आदिदीपक हैं अतः आगे के सभी गुणस्थानों में अप्रमत्त अवस्था है । ८. अपूर्वकरण - करण अर्थात् परिणाम, जो पूर्व में नहीं प्राप्त हुआ वह अपूर्व है । अपूर्व हैं परिणाम जिसके वह अपूर्वकरण है । उसके दो भेद हैं-उपशमक और क्षपक । ये कर्मों के उपशमन और क्षपण की अपेक्षा रखते हैं । क्षपक के क्षायिक भाव होता है और उपशमक के क्षायिक और औपशमिक दो भाव होते हैं । दर्शनमोहनीय के क्षय के बिना क्षपक श्रेणी में आरोहण करना बन नहीं सकता इसलिए क्षपक के क्षायिक भाव ही है। तथा दर्शनमोहनीय के क्षय या उपशम के बिना उपशमश्रेणी आरोहण करना नहीं हो सकता है अतः उपशमक के दोनों भाव हैं । ६. अनिवृत्तिकरण - समान समय में स्थित हुए जीवों के परिणामों की बिना भेद के वृत्ति – रहना अर्थात उनमें भेद नहीं रहने से अनिवृत्तिकरण है । अथवा निवृत्तिव्यावृत्ति नहीं है जिनकी वे अनिवृत्ति हैं उनके साथ हुआ चारित्र परिणाम अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है । उसका नाम बादर - साम्पराय भी है । उसके भी दो भेद हैं- उपशमक और क्षपक । जीं कुछ प्रकृतियों को उपशमित कर रहा है और कुछ प्रकृतियों का आगे करेगा ऐसे उपशमश्रेणीपमिक भाव है । तथा क्षपक कुछ प्रकृतियों का क्षपण करता है और आगे कुछ प्रकृतियों का क्षपण करेगा इसलिए उसके क्षायिक भाव होता है। इन गुणस्थानों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीनों भाव पाये जाते हैं । १०. सूक्ष्मसाम्पराय – सूक्ष्म हैं साम्पराय अर्थात् कषायें जिनकी वे सूक्ष्मसाम्पराय कह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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