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________________ ३१४] [ मूलाचारे सम्यङ मिथ्यादृष्टिः सम्यङ मिथ्यात्वोदयजनितपरिणामः, सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोरुदयप्राप्तस्पर्द्धकानां क्षयात् सतामुदयाभावलक्षणोपशमाच्च सम्यङ मिथ्यादृष्टिः । समीचीना दृष्टि: श्रद्धा यस्यासो सम्यग्दृष्टिः । असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चासंयतसम्यग्दृष्टिः क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकदृष्टिभेदेन त्रिविधः सप्तप्रकृतीनां क्षयेण क्षयोपशमेनोपशमेन च स्यात् । संयतश्चासंयतश्च संयतासंयतः, न चात्र विरोधः संयमासंयमयोरेकद्रव्यवर्तिनो: त्रसस्थावरनिबन्धनत्वात् अप्रत्याख्यानावरणस्य सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्सतां चोपशमात्प्रत्याख्यानावरणीयोदयाच्च संयमासंयमो गुणः । प्रकर्षेण प्रमादवंतः प्रमत्ता: सम्यग्यताः संयताः प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयताः, नात्र विरोधो यतः संयमो नाम हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिगुप्तिसमित्यनुरक्षितोऽसौ प्रमादेन विनाश्यत इति, प्रमत्तवचनम् अन्तदीपकत्वात् शेषातीतसर्वगुणेषु प्रमत्ताश्रितत्वं सूचयति,प्रमत्तसंयतः संयमोऽपि ३. सम्यग्-मिथ्यात्व-दृष्टि, श्रद्धा और रुचि ये एकार्थवाची हैं । समीचन और मिथ्या है दष्टि-श्रद्धा जिसकी वह सम्यग्मिथ्यादष्टि है। वह सम्यग्मिथ्यात्व नामक प्रकृति के उ उत्पन्न हए परिणामों को धारण करता है। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय प्राप्त स्पर्धकों होने से और सत्ता में स्थित कर्मों का उदयाभावलक्षण उपशम होने से सम्यग्मिथ्याष्टि होता है। ४. असंयत-सम्यक्–समीचीन दृष्टि-श्रद्धा है जिसकी वह सम्यग्दृष्टि है और जो संयत नहीं वह असंयत है। ऐसे असंयत-सम्यग्दृष्टि के क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व के भेद से तीन प्रकार हो जाते हैं। चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक, इनके क्षयोपशम से क्षायोपशमिक और इनके उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होते हैं। ५. देशविरत-देशविरत को संयतासंयत भी कहते हैं । संयत और असंयत की मिश्र अवस्था का नाम संयतासंयत है। इसमें विरोध नहीं है क्योंकि एक जीव में एक साथ संयम और असंयम दोनों का होना त्रसस्थावरनिमित्तक है। अर्थात् एक ही समय में वह जीव त्रसहिंसा से विरत है और स्थावरहिंसासे विरत नहीं है इसलिए संयतासंयत कहलाता है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के सर्वघाति-स्पर्धकों का उदयाभावलक्षण क्षय होने से और उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय होने से यह संयमासंयम गुणपरिणाम होता है। ६. प्रमत्तसंयत-जो प्रकर्षरूप से प्रमादवान् हैं वे प्रमत्त हैं और जो सम-सम्यक् प्रकार से यत-प्रयत्नशील हैं या नियन्त्रित हैं अर्थात् व्रतसहित हैं वे संयत हैं। तथा जो प्रमत्त भी हैं और संयत भी हैं वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पापों से विरति का नाम संयम है। तथा यह संयम गुप्ति और समिति से अनुरक्षित होने से नष्ट नहीं होता है। अर्थात् प्रमाद संयमी मुनियों का संयम का नाश नहीं कर पाता है किन्तु मलदोष उत्पन्न करता रहता है इसलिए ये प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। यह 'प्रमत्त' वचन अन्तदीपक है अतः पूर्व के सभी गुणस्थानों में जीव प्रमाद के आश्रित हैं. ऐसा सूचित हो जाता है। यह संयम-निमित्तक प्रमत्तसंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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